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________________ ५८ स्थिति जीवित शरीर-जैसी न रहकर मृत शरीर-जैसी हो जाती है, उसमें प्राण नहीं रहता अथवा जली रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती । इस विषय के समर्थनमें कितने ही शास्त्रीय प्रमाण आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक, लोकवार्तिक, आदिपुराण और जयधवला - जैसे ग्रन्थोंपर से पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये हैं जिन्हें यहां फिरसे उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती । ऐसी स्थितिमें तुलिपासा - जैसे दोषों को सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकता - वेदनीयकर्म उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । और कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नहीं हुआ करता, उपादान कारणके साथ अनेक सहकारी कारणोंकी भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन सबका संयोग यदि नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुआ करता । और इसलिये केवली में क्षुधादिका अभाव मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती । वेदनीयका सत्व और उदय वर्तमान रहते हुए भी. आत्मामें अनन्तज्ञान-सुख - वीर्यादिका सम्बन्ध स्थापित होने से वेदनीय कर्मका पुद्गल परमाणु धादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारण शक्तिको मन्त्र तथा औषधादिके बलपर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारनेका कार्य करने में असमर्थ होता है । निःसत्व हुए विषद्रव्य के परमाणुओं को जिस प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी प्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकमैके परमाणुओं को भी वेदनीयकर्म के हो परमाणु कहा जाता है, और इस दृष्टिसे ही आगम में उनके उदयादिककी व्यवस्था की गई है। उसमें कोई प्रकारकी बाधा अथवा सैद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती - और इस लिये प्रोफेसर साहबका यह कहना कि 'क्षुधादि दोषोंका अभाव मानने पर केवली में अघातिया कर्मों के भी नाशका प्रसङ्ग आता है" अनेकान्त * अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ पृ० १५६-१६१ • अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ पृ० ६२ Jain Education International [ वर्ष ६ उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है जिस प्रकार कि धूमके अभाव में अग्निका भी अभाव बतलाना अथवा किसी औषध प्रयोग में विषद्रव्यकी मारणशक्तिके प्रभावहीन हो जानेपर विषद्रव्यके परमाणुओं का ही अभाव प्रति पादन करना । प्रत्युत इसके, घातिया कर्मोंका अभाव होनेपर भी यदि वेदनीयकमके उदयादिवश केवली में क्षुधादिकी वेदनाओं को और उनके निरसनार्थ भोजनादि ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उससे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयां एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं: (क) यदि असातावेदनीयके उदय वश केवली को भूख-प्यासको वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश परिणामको अविनाभाविनी हैं, तो केवली में अनंत सुखका होना बाधित ठहरता है । और उस दुःखको न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है तो अनन्तवीर्य भी बाधित हो जाता है—उसका कोई मूल्य नहीं रहता - अथवा वीर्यान्तरायकर्मका अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है । (ख) यदि क्षुधादि वेदनाओंके उदय वश केवलोमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवली के मोहकर्मका अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इच्छा मोहका परिणाम । और मोहके सद्भावमें केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवली में नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगके न बन सकनेपर उसका ज्ञान छद्मस्थों (सर्वज्ञों) के समान क्षायोपशमिक ठहरता है - क्षायिक नहीं । और तत्र ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नामके घातिया कर्मोका प्रभाव भी नहीं बनता । (घ) वेदनीयकर्म के उदयजन्य जो सुख - दुःख होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवल के इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति रहती नहीं । यदि केवली में क्षुधा तृषादिकी वेदनाएँ मानी जाएँगी तो इन्द्रिय* संकिलेसाविणाभावणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स (धवला ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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