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________________ किरण २] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने ४६ 'स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द-वृत्ति--यथेच्छ प्रवृत्ति-है इसलिये जगप्तके ऊँचे दर्जेके अनाचारमार्गोमें-हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके- उनके अनुष्ठान जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर- जो लोग दीक्षाके समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं -सहजग्राह्य हृदयमें मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने (मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने)का जिन्हें अभिमान है-अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे (दीक्षानुष्ठानका निवारण करनेकेलिये) मुक्तिको जो (मीमांसक) अमान्य कर रहे हैं और मांसभक्षण, मदिरापान तथा मैथुनसेवन जैसे अनाचारके मार्गों के विषयमें स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमें कोई दोष नहीं है + वे सब (हे वीर जिन !) आपकी दृष्टिसे-बन्ध, मोक्ष और तत्कारण-निश्चय के निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाददर्शनसे-बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होनेसे) केवल विभ्रम में पड़े हुए हैं- तत्त्वके निश्चयको प्राप्त नहीं होते- यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है !!' व्याख्या- इस कारिका में 'दीक्षासममुक्तिमानाः' पद दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थमें उन मान्त्रिकों (मन्त्रवादियों) का ग्रहण किया गया है जो मन्त्र-दीक्षाके समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षाको यम-नियम रहिता होते हुए भी अनाचारको क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिए बड़ेसे बड़ा अनाचार-हिंसादिक घोर पाप-करते हए भी उसमें कोई दोष नहीं देखते-कहते हैं 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होने के कारण बड़ेसे बड़े अनाचारके माग भी दोषके कारण नहीं होते और इसलिये उन्हें उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तिकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दसरे अर्थमें उन मीमांसकोंका ग्रहण किया गया है जो कर्मों के क्षयसे उत्पन्न अनन्तज्ञानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते. यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभावसे ही जगतके भूतों (प्राणियों) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मांसभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुन सेवन-जैसे अनाचारोंमें कोई दोष नहीं देखते। साथ ही वेद-विहित पशुवधादि ऊचे दर्जे के अनाचार मार्गोंको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोष ही घोषित करते हैं। ऐसे सब लोग वीर-जिनेन्द्र की दृष्टि अथवा उनके बतलाये हुए सन्मार्गसे बाह्य हैं. ठोक तत्त्वक निश्चयको प्राप्त न होनेके कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममें पड़े हुए हैं और इसीलिये आचार्य महोदयने उनकी इन दूषित प्रवृत्तियोंपर खेद व्यक्त किया है और साथ हो यह सूचित किया है कि हिंसादिक महा अनाचारोंके जो मागे हैं वे सब सदोष हैं - उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी आगमविहित हों या अनागमविहित हों। + १ "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।" सद्विचार मणियां १ जो अपनेको जानता है वह सबको जानता। जो अपनेको नहीं जानता वह सबको नहीं जानता। -कुन्द कुन्द . २ हमारी इच्छाएँ जितनी कम हों, उतने ही हम देवताओंके समान हैं। -सुकरात ३ यह भी हो सकता है कि गरीबी पुण्यका फल हो और अमीरो पापका । - -म० गांधी ४ कुशाग्रबुद्धि महान कार्योको प्रारम्भ करती है; पर परिश्रम उन्हें पूरा करता है। -एमर्सन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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