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________________ वर्ष ] ह उन्हें नहीं कहा जासकता । लक्षण और स्वरूपमें बड़ा अन्तर है- लक्षण - निर्देश में जहां कुछ असाधारण गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें अशेष गुणोंके लिये गुञ्जाइश रहती है । अतः अष्टसहस्रीकारने 'विग्रहादिमहोदय:' का जो अर्थ 'शश्वन्निस्वेदत्वादिः ' किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा०ने जो यह लिखा है कि " शरीर-सम्बन्धी गुण धर्मोंका प्रकट होना न होना आप्त स्वरूप चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते” वह ठीक नहीं है । क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका चिन्तन किया है जिनमें शरीर-सम्बन्धी गुण-धर्मों के साथ अन्य अतिशय भी आगये हैं । और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयों को मानते थे और उनके स्मरण - चिन्तनको * अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७-८, पृ० ६२ + इस विषयके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं(क) शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छबिरालिलेप २८ । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोरेखि रश्मिभिन्नं, ननाश बाह्यौं' ३७। समन्ततोऽङ्गभासां ते परिवेषेण भूयसा, तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा ६५ । यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा १०७। शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमी हितम् ११३ । (ख) नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः, पादाम्बुजैः पातितमारदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै २६ । प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् ७३। मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः ७५ । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलिदेवचक्रम् ७६ । सर्वज्ञज्योतिषोद्भूतस्तावको महिमोदयः कं न कुर्याः प्रणम्र ते सत्वं नाथ सचेतनम् ६६ । तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकं प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ६७ । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातवि कोशाम्बुजमृदुहासा १०८ । Jain Education International अनेकान्त ६० (क) महत्व भी देते थे । ऐसी हालत में श्राप्तमीमांसा ग्रन्थके सन्दर्भकी दृष्टिसे भी आप्तमें चुत्पिपासादिक के अभावको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता। हां, प्रोफेसर साहब ने आप्तमीमांसाकी ६३वीं गाथाको विरोध में उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है: पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः ॥ ६३॥ इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रो० सा०का कहना है कि 'इसमें वीतराग सर्वज्ञ के दुःखकी वेदना स्वीकार की गई है जो कि कर्म सिद्धान्तकी व्यवस्थाके अनुकूल है; जब कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें क्षुत्पिपासादिकका अभाव बतलाकर दुःखकी वेदना अस्वीकार की गई है। जिसकी संगति कर्मसिद्धान्तकी उन व्यवस्थाओंके साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेदनीय कर्म-जन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस कारिका के सर्वथा विरुद्ध पड़ता है— दोनों प्रन्थोंका एक कर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध बाधक है' + । जहां तक मैंने इस कारिका के अर्थपर उसके पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे और दोनों विद्वानों के ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता । प्रो० साहबका जो यह कहना है कि 'कारिकागत 'वीतरागः' और 'विद्वान' पद दोनों एक ही मुनि व्यक्तिके वाचक हैं और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथमें लगा है' : वह ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वकारिकामें जिस प्रकार अचेतन और अकषाय ( वीतराग ) ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित + अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३, पृ० १३२ तथा वर्ष ६, कि० १, पृ०६ ÷ अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३४ पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । चेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥६२॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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