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________________ ५४ है और कथंचित श्रवाच्य ही है, सो यह सब नयविवक्षासे है, सर्वथा नहीं । स्वरूपादि (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इन) चारसे उसे कौन सत् ही नहीं मानेगा और पररूपादि ( परद्रव्य, पर क्षेत्र, परकाल, परभाव इन) चारसे कौन सही नहीं मानेगा । यदि इस तरह उसे स्वीकार न किया जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । क्रमसे अर्पित दोनों (सत् और असत् ) की अपेक्षासे वह कथंचित् उभय ही है, एक साथ दोनों (सत् और असत्) को कह न सकनेसे अवाच्य ही है। इसी प्रकार श्रवक्तव्य के बादके अन्य तीन भङ्ग (सदवाच्य, असद वाच्य, और सदसदवाच्य ) भी अपनी विवक्षाओं से समझ लेना चाहिए । यही जैनदर्शनका सप्तभङ्गी न्याय है जो विरोधीविरोधी धर्मयुगलको लेकर प्रयुक्त किया जाता है और तत्तत् अपेक्षाओं से वस्तु- धर्मोका निरूपण करता है । स्याद्वाद एक विजयी योद्धा है और सप्तभङ्गीन्याय उसका अस्त्र-शस्त्रादि विजय साधन है । अथवा यों कहिए कि वह एक स्वत: सिद्ध न्यायाधीश है और सप्तभंगी उसके निर्णयका कए साधन है । जैनदशनके इन स्याद्वाद समभङ्गीन्याय, अनेकान्तवाद आदिका विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन प्राप्तमीमांसा, स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, सन्मतिसूत्र, अष्टशती, अष्टसहस्री, अनेकान्तजय पताका, स्याद्वादमञ्जरी आदि जैन दार्शनिक ग्रन्थों में समुपलब्ध है । अनेकान्त ऊपर राहुलजीने संजयकी चतुर्भङ्गी इस प्रकार बतलाई है - (१) है ? - नहीं कह सकता । (२) नहीं है ? - नहीं कह सकता । [ वर्ष ६ सकता' जवाब दिया है और इसलिये उसे अनिश्चिततावादी कहा गया है । (३) है भी नहीं भी ? — नहीं कह सकता। (४) न है और न नहीं है ? - नहीं कह सकता । संजयने सभी परोक्ष वस्तुओंके बारेमें 'नहीं कह Jain Education International जैनोंकी जो सप्तभङ्गी है वह इस प्रकार है - (१) वस्तु है ? - कथञ्चित् (अपनी द्रव्यादि चार अपेक्षाओं से) वस्तु है ही — स्यादस्त्येव घटादि वस्तु । (२) वस्तु नहीं है ? कथञ्चित् (परद्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु नहीं ही है – स्यान्नास्त्येव घट वस्तु । (७) वस्तु 'है - नहीं - अवक्तव्य है' ? - कथञ्चित् स्याद्वाद में अन्तर— संजय के अनिश्चिततावाद और जैनदर्शन के क्रमसे अर्पित एक पर द्रव्यदिसे और एक साथ अर्पित परद्रव्यादिकी अपेक्षासे कही न जा सकनेसे) वस्तु 'है नहीं और अवक्तव्य ही है' - स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमेव घटादि वस्तु । जैनोंकी इस सप्तभङ्गीमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भङ्ग तो मौलिक हैं और तीसरा, पाँचवाँ, और छठा द्विसंयोगी तथा सातवाँ त्रिसंयोगी भङ्ग हैं और इस तरह अन्य चार भङ्ग मूलभूत तीन भङ्गों के संयोगज भङ्ग हैं । जैसे नमक, मिर्चे और खटाई इन तीन संयोगज स्वाद चार ही बन सकते हैं (३) वस्तु है, नहीं (उभय) है ? –कथञ्चित् (क्रमसे अर्पित दोनों - स्वद्रव्यादि और परद्रव्याद चार अपेक्षाओं से) वस्तु है, नहीं (उभय) ही हैस्यादस्ति नास्त्येव घटादि वस्तु । (४) वस्तु अवक्तव्य है ? - कथञ्चित् (एक साथ विवक्षित स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनों अपेक्षाओंसे कही न जा सकनेसे) वः तु अवक्तव्य ही हैस्यादवक्तव्यमेव घटादि वस्तु । (५) वस्तु 'है - - अवक्तव्य है' ?- कथञ्चित् (स्वद्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-परद्रव्यादिकी अपेक्षाओंसे कहीं न जा सकनेसे) वस्तु 'है - अवक्तव्य ही है' - स्यादस्त्य वक्तव्यमेव घटादि वस्तु | (६) वस्तु 'नहीं - अवक्तव्य है' ? - कथञ्चित् (परद्रव्यादि से और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-पर द्रव्यादिकी अपेक्षा से कही न जा सकने से) वस्तु 'नहीं - अव क्तव्य ही है' - स्यान्नास्त्य वक्तव्यमेव घटादि वस्तु । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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