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किरण २]
संजय वेलट्टिपुत्त और स्याद्वाद
और निश्चय है। जिस जिम अपेक्षासे वे धमै उसमें अन्य शब्द नहीं, जिसका अर्थ है कथश्चित् . किश्चित्, व्यवस्थित एवं निश्चित हैं उन सबका निरूपक स्या- किसी अपेक्षा, कोई एकदृष्टि, कोई एक धर्मको विवक्षा. द्वाद है। अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है तो स्याद्वाद कोई एक ओर । और 'वाद' शब्दका अर्थ है मान्यता उसका व्यवस्थापक है। दूसरे शब्दों में अनेकान्तवाद अथवा कथन । जो स्यात् (कथञ्चित्) का कथन वस्तु (वाच्य-प्रमेय) रूप है और स्याद्वाद निर्णायक करनेवाला अथवा 'स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करनेवाचक-तत्त्वरूप है। वास्तव में अनेकान्तात्मक वस्तु- वाला है वह स्याद्वाद है। अर्थात् जो सर्वथा एकातत्त्वको ठीकठीक समझने-समझाने, प्रतिपादन करने. न्तका त्यागकर अपेक्षासे घस्तुस्वरूपका विधान करता कराने के लिये ही स्याद्वादका आविष्कार किया गया है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, अपेक्षावाद आदि है, जिसके प्ररूपक जैनोंके सभी (२४) तीर्थंकर हैं। इसीके दूसरे नाम हैं-इन नामोंसे भी उसीका बोध अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरको उसका प्ररूपण होता है। जैन तार्किकशिरोमणि स्वामी समन्तभद्रने उत्तराधिकारके रूप में २३ वें तीर्थकर भगवान पाश्व- आप्तमीमांसा और स्वयम्भूस्तोत्रमें यही कहा हैनाथसे तथा भगवान पाश्वनाथको कृष्ण के समकालीन स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः। २२ वें तीर्थकर अरिष्टनेमिसे मिला था। इस तरह - सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥१०४।। पूर्व पूर्व तीर्थकर से अग्रिम तीर्थकरको परम्परया
-आप्तमीमांसा स्याद्वादका प्ररूपण प्राप्त हुआ था। इस युगके प्रथम सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। तीर्थंकर ऋषभदेव हैं जो इस युगके श्राद्य स्याद्वाद. सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ प्ररूपक हैं। महान् जैन तार्किक समन्तभद्र + और सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः। अकलङ्कदेव जैसे प्रख्यात जैनाचार्योंने सभी तीर्थंकरों स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ को स्पष्टतः स्याद्वादी-स्याद्वादप्रतिपादक बतलाया है
-स्वयम्भूस्तोत्र और उस रूपसे उनका गुण-कीर्तन किया है। जैनोंकी अत: 'स्यात्' शब्दको संशयार्थक, भ्रमाथक अथवा यह अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि उनके हर एक अनिश्चयात्मक नहीं समझना चाहिये। वह अविवतीर्थकरका उपदेश 'स्याद्वादामृतगर्भ होता है और वे क्षित धर्मोकी गौणता और विवक्षित धर्मकी प्रधानता. 'स्याद्वादपुण्योदधि' होते हैं। अत: केवल भगवान को सूचित करता हुआ विवक्षित हो रहे धर्मका विधान
महावीर ही स्याद्वादके प्रतिष्ठापक व प्रतिपादक नहीं एवं निश्चय करानेवाला है। संजयके अनिश्चितताहैं। स्याद्वाद जैनधर्मका मौलिक सिद्धान्त है और वादकी तरह वह अनिर्णीति अथवा वस्तुतत्त्वकी वह भगवान महावीरके पूर्ववर्ती ऐतिहासिक एवं सर्वथा अवाच्यताको घोषणा नहीं करता। उसके प्रागैतिहासिक कालसे समागत है। ...
द्वारा जैसा प्रतिपादन होता है वह समन्तभद्रके शब्दों में स्थाद्वादका अर्थ और प्रयोग
निम्न प्रकार है'स्याद्वाद' पद स्यात् और वाद इन दो शब्दोंसे
कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । बना है । 'स्यात्' अव्यय निपातशब्द है, क्रिया अथवा
तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सवथा ।।१४।।
सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । + 'बन्धश्चमोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१।। स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त नैकान्तदृष्ट त्वमतोऽसि क्रमाप्तिद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तितः ।
शास्ता ||१४॥" स्वयंभूस्तोत्रगत शंभव जिनस्तोत्र । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।।१६।। +२ "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः । अर्थात् जैनदर्शनमें समग्र वस्तुतत्त्व कथञ्चित् वृषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये ॥१॥" लघीयस्त्रय सत् ही है, कथंचित् असत् ही है तथा कथंचित् उभय
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