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________________ [ वर्ष प्रकृति तक के समान जानना चाहिये । विशेषता दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इतनी है कि द्विस्थानिक और अप्रत्याख्यानावरणीयकी कहे हैं (सूत्र १४४ व १४५ पत्र २०५ व २०६) । यहां प्ररूपणा पञ्चद्रिय तिर्यंचोंके समान है। इस सूत्रकी टीकामें श्री वीरसेन स्वामीने स्वोदय - परोदय बन्ध टीका में पत्र १३१ पर श्री वीरसेन स्वामीने जहां भेद बताते हुए पत्र २०७, पंक्ति १६-२० में पुरुषवेदका बंध है उसे बताया लिखा है कि मिध्यादृष्टिमें ५३, सासादन असंयत् सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदयसे कहा है, ४८, सम्य मिध्यादृष्टिमें ४२ और असंयतसम्यम्- परोदय से नहीं । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दृष्टि गुणस्थान में ४४ प्रत्यय होते हैं; क्योंकि यहां असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में मनुष्य व तिर्यंचों के वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते मनुष्यअपर्याप्त कलमें केवल पुरुषवेदका ही उदय होता है । नियोंमें इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं। विशेष इतना स्त्री या नपुंसक वेदका उदय नहीं रहता । यदि स्त्री या नपुंसक वेदका उदय भी सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्तकाल में है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद, होता तो पुरुषवेदका बन्ध स्वोदय न कह कर स्त्रोदयअसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व परोदय कहते। जिस प्रकार मिध्यादृष्टि व सासादनकार्मण, तथा अप्रमत्तगुणस्थाननें आहारक द्विक सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कहा है। अतः जिसके औदारिक प्रत्यय नहीं होते । प्रकट है कि प्रत्यय (आस्रवके मिश्रकाय योग में सम्यक्त्व होगा उसके स्त्री वेद नहीं होगा । कारण) मूल में चार और उत्तर सत्तावन होते है । इन में से कौन २ और कितने प्रत्यय किस २ गुणस्थान में होते हैं, यह सब पत्र २० से २७ तक टीकाकारने कथन किया है। यहां पर इस कथनसे कि मनुष्यनियों में सब गुणस्थानमें पुरुषं व नपुंसक वेद और अप्रमत्तगुणस्थानमें आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते, स्पष्ट हो जाता है कि गतिमा में मनुष्यनी शब्द से आशय भाव स्त्री का है, द्रव्य-स्त्रीका नहीं । यदि द्रव्यस्त्रीका श्राशय होता तो मनुष्यनी में अप्रमत्त गुणस्थानको न कहते और पुरुष व नपुंसकवेदका अभाव भी नहीं कहते, क्योंकि द्रव्य - स्त्रीके अप्रमत्तगुणस्थान संभव नहीं और वेद विषमता में पुरुष व नपुंसक प्रत्यय हो सकते हैं | यहांपर मनुष्यनियों में पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था का भी विचार किया गया है; क्योंकि औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्ययोंका कथन है जो केवल अपर्याप्त काल में हो होते हैं । मनुष्यनियोंके असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य नियोंके अपर्याप्त कालमें सम्यक्त्व नहीं होता । ७४ अनेकान्त २. योग मार्गणानुसार औदारिकमिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंके बन्धक मिथ्या Jain Education International बताते हुए पंक्ति २५ में असंयतसम्यग्दृष्टिके बत्तीस ३. पत्र २०८ में औदारिकमिश्रकाययोगके प्रत्यय प्रत्यय होते हैं । चूँकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री और नपुंसक वेदों के साथ बारह योगोंका अभाव है । इससे भी यह सिद्ध होता कि है मनुष्य व तियेंचों के अपर्याप्त कालमें असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में स्त्री वेदका उदय नहीं होता । ४. पत्र २३५ पर काम काययोगियोंमें प्रत्यय बताते हुए पंक्ति १८ में यह कहा है कि अनन्तानुबन्धि चतुष्क और स्त्रीवेदको कम करनेपर असंयतसम्यम्दृष्टियों के तेतीस प्रत्यय होते हैं। यहांपर नपुंसक वेद को कम नहीं किया है; क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि मर कर नरक में जा रहा है उसके नपुंसकवेदका सद्भाव कालमें स्त्री वेदका उदय किसी भी गतिमें संभव नहीं पाया जाता है । परन्तु असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त ५. योग मार्गणानुसार स्त्रीवेदीके प्रत्यय बताते हुए पत्र २४४ पंक्ति २१-२३ में लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कामंणकाय योग प्रत्ययोंको कम करना चाहिए: क्योंकि स्त्री - वेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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