SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण २ ] कालका अभाव है। यहांपर तो श्री वीरसेन स्वामीने स्वयं इस विषयको विलकुल स्पष्ट कर दिया है । ६. आहार मार्गणानुसार अनाहारक जीवोंके द्विस्थान प्रकृतियों ( वह कर्मप्रकृतियां जो केवल पहले और दूसरे गुणस्थान में बंधती हैं और जिनकी बन्ध व्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान में होती है) की प्ररू सल का भाग्योदय स ल सोमवंशसे संबद्ध यदुकुलका .. था । यह उत्तर से आकर शशकपुर वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत मृडुगेरे तालुक में अवस्थित डिमें रह रहा था। उस समय अङ्गडि एक छोटासा ग्राम था। उसके चारों ओर भयङ्कर जङ्गल था । सल महा-शूर एवं व्यवहार चतुर था। फलत: वह अङ्गडि का रक्षक बनकर जङ्गलसे गांव में आ, हानि पहुंचाने - वाले जङ्गली जानवरोंसे गांववालों की रक्षा करने ये इसे गांववाले प्रतिवर्ष अनाज के रूप में कुछ कर देने लगे । इस प्रकार थोड़े समय के बाद सलके पास काफी अनाज एकत्रित हुआ । तब अपने गांवकी रक्षाके 1. लिये इसने एक छोटीसी सेना तैयार की। सल जैन धर्मावलम्बी था । इसके श्रद्धेय गुरु सुदत्त यति थे +। सलको गुरुदेवपर असीम भक्ति थी। एक दिन Jain Education International सल का भाग्योदय * [ ले० - विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री ] * ‘Epigraphia carnatica' के आधार पर + डा० सालेतोर सागर कट्टे एवं हुं बुचके शिलालेखोंके आधारपर इन सुदत्त यतिका पर नाम वर्धमान योगीन्द्र बताते हैं। [Mediaeval Jainism] पर वह यह नहीं बना सके कि सुदत्त यतिका नाम वर्धमान योगीन्द्र क्यों पड़ा। - पणा करते हुए पत्र ३६४ पंक्ति २७ में यह कहा है अनन्तानुबन्धि चतुष्कका बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि अनाहारक जीवों के अपर्याप्त कालमें दूसरे गुणस्थान से उपरिम गुणस्थानोंमें स्त्री वेदका उदय नहीं है। ७५ बात है कि स्थानीय वसन्तदेवीके मन्दिर में सल गुरुदेवसे धर्मोपदेश सुन रहा था इसी बीचमें सुदत्त यतिने दूरीपर एक बाघको खरगोशके पीछे दौड़ते हुए देखा । इतने में यति सोचने लगे कि यह दीन खरगोश अवश्य बाघका ग्रास बन जायगा, तत्क्षण ही यति महाराजने धर्म - श्रवणार्थ पास में बैठे हुए परम भक्त वीर शिरोमणि सलसे कहा कि अद पोय सल' अर्थात् 'सल, उसे मारो' । बस, गुरुजीका इतना कहना था कि सल हवाकी तरह दौड़कर बाघकी पीठपर चढ़, कटारीकी सहायता से उसे वश करके गुरुदेव के पादमूलमें ला पटका ÷ । शिष्य के इस अद्भुत शौर्यको देखकर गुरुजी बड़े प्रसन्न हुए । इस उपलक्ष में उत्तरोत्तर उन्नतिकी कांक्षासे ÷ एक शिलालेखसे स्पष्ट है कि सुदन्त, यतिने सलके शौर्य की परीक्षा करनेकेलिये ही यह घटना घटित की थी । दूसरे एक शिलालेखमें यह भी उपलब्ध है कि स्वयं पद्मा बती देवीने सिंहका रूप धारण करके सरदार सलकी परीक्षा करनेमें यति सुदत्तकी सहायता की थी। साथ ही साथ यह भी सिद्ध है कि यति महाराजने ही 'सिंह' सलका राजचिह्न नियत करके पोय-सल या होय्सल उसका विजयी नाम घोषित किया था । [ Epigraphia Carnatica' भाग ८ पृष्ठ ५ ] For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy