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भी— कामसेवन (भोग) करने में कोई दोष नहीं देखते; जिनकी दृष्टिमें पुण्य पाप और उनके कारण शुभ-अशुभ कर्म कोई चीज नहीं; जो परलोकको नहीं मानते, जीवको भी नहीं मानते और अपरिपक्कबुद्धि भोले जीवोंको यह कह कर ठगते हैं कि - 'जाननेवाला जीव कोई जुदा पदार्थ नहीं है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु
चार मूल तत्व अथवा भूत पदार्थ हैं, इनके संयोगसे शरीर-इन्द्रिय तथा विषय-संज्ञाकी उत्पत्ति या अभि व्यक्ति होती है और इन शरीर इन्द्रिय विषय संज्ञासे चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है। इस तरह चारों भूत चैतन्यका परम्परा कारण हैं और शरीर, इन्द्रिय तथा विषयसंज्ञा ये तीनों एक साथ उसके साक्षात् कारण हैं । यह चैतन्य गर्भसे मरण- पर्यन्त रहता है और उन पृथ्वी आदि चारों भूतोंका उसी प्रकार शक्तिविशेष है जिस प्रकार कि मद्य के अङ्गरूप पदार्थों (आटा मिला जल, गुड और धातकी आदि) का शक्तिविशेष मद (नशा) है। और जिस प्रकार मदको उत्पन्न करनेवाले शक्तिविशेषको व्यक्ति कोई देवकृत सृष्टि नहीं देखी जाती बल्कि मद्य अङ्गभूत असाधारण और साधारण पदार्थोंका समागम होनेपर स्वभावसे ही वह होती है उसी प्रकार ज्ञानके हेतुभूत शक्तिविशेषको व्यक्ति भी किसी दैवसृष्टिका परिणाम नहीं है बल्कि ज्ञानके कारण जो असाधारण और साधारण भूत (पदार्थ) हैं उनके समागमपर स्वभावसे ही होती है । अथवा हरीतकी (हरड़ ) आदि में जिस प्रकार विरेचन (जुलाब) की शक्ति स्वाभाविकी है - किसी देवताको प्राप्त होकर हरीतकी विरेचन नहीं करती है-उसी प्रकार इन चारों भूतों में भी चैतन्यशक्ति स्वाभाविकी है । हरीतकी यदि कभी और किसीको विरेचन नहीं करती है तो उसका कारण या तो हरीतकी आदि योगके पुराना हो जाने के कारण उसकी शक्तिका जीर्ण-शीर्ण हो जाना होता है और या उपयोग करनेवालेकी शक्तिविशेषकी
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अनेकान्त
प्रतीति उसका कारण होती है । यही बात चारों भूतों का समागम होनेपर भी कभी और कहीं चैतन्यशक्तिकी अभिव्यक्ति न होने के विषय में समझना चाहिये । इस तरह जब चैतन्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं और चारों भूतोंको शक्तिविशेषके रूप में जिस चैतन्यकी अभिव्यक्ति होती है वह मरणपर्यन्त ही रहता है - शरीरके साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है-तब परलोक में जानेवाला कोई नहीं बनता । परलोकी के अभाव में परलोकका भी अभाव ठहरता है, जिसके विषय में नरकादिका भय दिखलाया जाता तथा स्वर्गादिकका प्रलोभन दिया जाता है। और दैव (भाग्य) का अभाव होने से पुण्य पाप कर्म तथा उनके साधन शुभ-अशुभ अनुष्ठान कोई चीज नहीं रहते - सब व्यर्थ ठहरते हैं। और इस लिये लोक-परलोक के भय तथा लज्जाको छोड़कर यथेष्ट रूप में प्रवर्तना चाहिये - जो जीमें आवे वह करना तथा खाना-पीना चाहिये। साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिये कि ' तपश्चरण तो नाना प्रकार की कोरी यातनाएँ हैं, संयम भोगोंका वञ्चक हैं और अग्निहोत्र तथा पूजादिक कर्म बच्चोंके खेल हैं - इन सबमें कुछ भी नहीं धरा है ।"
इस प्रकारके ठगवचनों द्वारा जो लोग भोले जीवोंको ठगते हैं- पाप और लोकके भयको हृदयों से निकालकर तथा लोक-लाज को भी उठाकर उनकी पाप में निरंकुश प्रवृत्ति कराते हैं, ऐसे लोगों को श्राचार्यैमहोदने जो 'निर्भय' और 'निर्लज्ज' कहा है वह ठीक ही है। ऐसे लोग विवेक-शून्य होकर स्वयं विषयों में अन्धे हुए दूसरोंको भी उन पापोंमें फँसाते हैं, उनका अधःपतन करते हैं और उसमें आनन्द मनाते हैं, जो कि एक बहुत ही निकृष्ट प्रवृत्ति है ।
यहां भोले जीवोंके ठगाये जानेकी बात कहकर श्राचार्य - महोदयने प्रकारान्तर से यह भी सूचित किया है कि जो प्रौढ बुद्धिके धारक विचारवान् मनुष्य हैं वे ऐसे ठग वचनों के द्वारा कभी ठगाये नहीं सकते। वे जानते हैं कि परमार्थसे जो अनादि निधन उपयोग लक्षण चैतन्य स्वरूप आत्मा है वह प्रमाण * " तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चकः । अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥
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