Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ ये तो सोचा ही नहीं ज्ञानेश के पिता रूढ़िवादी पुरातन पंथियों में अग्रगण्य थे, उन्हें धर्म-कर्म में मीन-मेख करना बिल्कुल पसंद नहीं था। इस मामले में ज्ञानेश एवं उसके पिता कभी एकमत नहीं हो पाये; फिर भी ज्ञानेश ने अपने पिता की मान-मर्यादाओं का कभी उल्लंघन नहीं किया। ज्ञानेश के पिता ने तथाकथित धर्मगुरुओं से यह सुन रखा था कि धर्म के मामले में मीन-मेख करने एवं शंका-आशंका प्रगट करने से अनर्थ हो जाता है, पाप भी लगता है; इसकारण उनकी धारणा बन गई थी कि धर्म तो श्रद्धा-भक्ति का विषय है, उसमें तर्क-वितर्क करना ही क्यों ? ज्ञानेश के माता-पिता धर्मभीरु थे, इसकारण कुल परम्परागत लीक छोड़कर चलना, धर्म के बारे में शंका-आशंका करना उनके बलबूते की बात नहीं थी। उन्हें डर लगता था कि उनके किसी व्यवहार से साधु-संत, धर्मगुरु और देवी-देवता नाराज न हो जायें। उनकी इसप्रकार की धर्मभीरूता ज्ञानेश को रास नहीं आ रही थी। ___ ज्ञानेश के पिता अपनी धार्मिक अज्ञानता को छिपाने के लिए बड़े गर्व से कहा करते “अध्यात्म की बातें हमारी समझ में भले न आएँ, पर हम धर्मकार्यों में कभी पीछे नहीं रहे। हमने अपनी पीढ़ियों से चली आई परम्पराओं को कभी नहीं छोड़ा । यही कारण है कि आज हमारा खानदान सदाचारी है; अन्यथा बिगड़ने में देर ही क्या लगती है ?" यद्यपि यह सच है कि - इस धार्मिक आतंक से उनके परिवार का जीवन दुर्व्यसनों से दूर रहा; पर केवल इस कुलाचाररूप बाह्य धर्मप्रवृत्ति को ही धर्म मानकर जो वे मन ही मन संतुष्ट हो लेते और स्वयं को धर्मात्मा मानकर हर्षित होते, गौरवान्वित होते - यह बात ज्ञानेश की अन्तरात्मा को स्वीकृत नहीं होती; अतः उसने संकल्प किया कि - "मैं पिताजी के विचारों से भी अप्रभावित रहकर धर्म की सच्चाई की अपने-अपने भाग्य का खेल... तह तक पहुँचने का पूरा-पूरा प्रयास करूँगा, धर्म के नाम पर किसीप्रकार के पोपडम और आडम्बर में अटका नहीं रहूँगा और यदि संभव हुआ तो पिताश्री को भी धर्म के सत्य तथ्यों को समझाने का प्रयास करूंगा।" ___ ज्ञानेश बिना सोचे-विचारे परम्परागत लीक पर चलनेवालों में नहीं है। लीक छोड़ ही चलत हैं, शायर सिंह सपूत'। वह सोचता है कि प्रत्येक कुल का, प्रत्येक जाति का, प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक सम्प्रदाय का धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है ? धर्म का स्वरूप तो एक ही होना चाहिए। जैसे कि - आग तो कहीं भी हो, कभी भी हो, वह तो सर्वत्र व सदाकाल गर्म ही होगी; क्योंकि आग का धर्म तो उष्णता (गर्म) ही है न ?धर्म किसी जाति, कुल, सम्प्रदाय या परम्पराओं का मुंहताज नहीं है। धर्म तो इन सबसे ऊपर है, सर्वोपरि है। धर्म से भय कैसा ? धर्मभीरुता ही तो व्यक्ति को अंधविश्वासी धर्मान्ध बनाती है। अत: कोई कुछ भी क्यों न कहे - एकबार तो शान्ति से तर्क-वितर्क करके धर्म एवं पुण्य-पाप की तह तक पहुँचना ही होगा। अपने आत्मा के समता स्वभाव की ओर निरन्तर हो रहे अपने शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप भावों की पहचान तो करना ही होगी, तभी सच्चे सुख की प्राप्ति होगी। धर्म के तलस्पर्शी ज्ञान बिना ऊपरऊपर से धर्मात्मा बने रहना अपने को अज्ञान के अन्धकार में रखना है। ___ संभव है, सच्चाई को पहचानने में अनजाने में कभी हमारी किसी पीढ़ी से भूल-चूक हो गई हो, तो क्या हम उसी भूल को दुहराते रहें ? साँप निकल जाने पर भी उसकी लकीर को ही साँप समझ कर उससे डरते रहें ? वाह ! जितने कुल, जितनी जातियाँ, जितने वर्ग उतने धर्म? यह सब क्या है?

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86