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पैसा बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं
एक दिन धनेश को सुध-बुध खोये बेडरूम के बाहर बरामदे में जमीन पर अर्द्धमूर्च्छित हालत में पड़े-पड़े बड़बड़ाता देख उसकी पत्नी धनश्री ने अपना माथा ठोक लिया और उलाहने के स्वर में भगवान को सम्बोधित करते हुए कहने लगी
"हे विधाता ! यह क्या हो रहा है ? क्या मेरे भाग्य में भी वही सब है, जो मेरी माँ भोग रही है और अपने दिन रो-रो कर काट रही है। मैंने ऐसे क्या पाप किये, जिनका इतना बड़ा दण्ड मुझे मिल रहा है ? क्या अब ये दिन भी देखने पड़ेंगे ? आज यहाँ पड़े हैं, कल कहीं और पड़े होंगे। क्या अब घर की मान-मर्यादा भी बाहर-बाजार की गली-गली में...? हे भगवान ! पीहर में पिता के इन्हीं दुर्व्यसनों के कारण मेरी माँ और हम सब भाई-बहिन परेशान रहे और यहाँ पतिदेव भी ऐसे ही मिल गये। अब क्या होगा ?"
धनश्री भविष्य की भयंकर कल्पना से सिहर उठी, इस कारण उसे चक्कर - सा आ गया और वह गिरते-गिरते बची।
नारी स्वभाव के अनुसार धनश्री की उर्वरा चित्तभूमि में बचपन से ही अपने सुखमय जीवन जीने की असीम आशा-लताएँ अंकुरित हो रहीं थीं, पर उसके दुर्व्यसनी पिता और शराबी पति के कारण उसकी वे आशालताएँ पल्लवित होने से पहले ही मुरझा गईं।
यद्यपि पिता की दुर्दशा और माँ का दुःख देखकर भी वह कम दुःखी नहीं थी; पर उसने उस समय तो किसी तरह अपने मन को समझा लिया था। वह सोचती -
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पैसा बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं
"बचपन का बहुभाग तो बीत ही गया। थोड़ा समय जो शेष है, वह भी भाई के सहारे बिता लूँगी। सूखे बाँस को सीधा करने के प्रयत्न उसके टूटने की ही अधिक संभावना रहती है, अतः अब इस ढलती उम्र में पिता से कुछ कहना व्यर्थ ही है। अब यहाँ रहना ही कितना है, वर्ष - दो वर्ष में शादी हो जाएगी, नया घर बसेगा, फिर क्या ? खूब आनन्द से रहेंगे।"
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उसे क्या पता था कि उसके दुर्भाग्य की यात्रा कितनी लम्बी है ? अभी और कबतक ये दुर्दिन देखने पड़ेंगे। पति को इस हालत में देखकर उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। मानो उसका सारा भविष्य अंधकारमय हो ।
जब उसकी शादी की बात उठी थी, सगाई का प्रस्ताव आया था, उस समय उसका भाई बहुत छोटा था, माँ की घर में कुछ चलती नहीं थी, मद्यपायी पिता मोहन अपनी स्थूल दृष्टि से केवल धनाढ्य घर और लड़के के बाह्य व्यक्तित्व को ही देख-परख पाया । श्रीसम्पन्न होने से ठाठ-बाट तो सेठों जैसे थे ही, देखने में लड़का भी हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर था। लड़की की राय लेना, उसकी पसंदगी पूछना तो उस खानदान की तौहीन समझी जाती थी। समाज और कुटुम्बियों का सोच यह था कि
" माता-पिता जैसा अनुभव अभी बच्चों में थोड़े ही होता है और अपनी संतान को जान-बूझकर कौन गड्ढे में डालना चाहेंगे। फिर कल के छोकरे-छोकरियों को अभी पसंद-नापसंद करने की तमीज ही क्या है? पिता व परिवार को पीढ़ियों का अनुभव होता है। वे जो भी करेंगे, भला ही करेंगे।"
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बस इसी मानसिकता के कारण किसी ने भी इस दिशा में स्वयं धनश्री की राय जानने की कुछ भी पहल नहीं की, आवश्यकता ही नहीं