Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ 37 ये तो सोचा ही नहीं फल भी देते ही हैं। इसीलिए बाल्यकाल से ही यह जानकारी होना जरूरी है कि कैसे-कैसे पुण्य-पाप परिणामों या शुभ-अशुभ भावों से किसप्रकार का कर्मबंध होता है और उनका क्या फल होता है ? । ___जैसे धनार्जन के काम में घाटे-मुनाफे का पता लगाने के लिए लेन-देन, आवक-जावक, आय-व्यय का लेखा-जोखा जरूरी होता है; उसीप्रकार पुण्य-पाप के परिणामों या भावों का सही लेखा-जोखा भी जरूरी है। अन्यथा जैसे धंधे में लापरवाही से दिवाला निकल जाता है; उसीप्रकार धर्म के क्षेत्र में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप की पहचान न होने से धर्म-अधर्म के न पहचानने के कारण पापाचरण के फलस्वरूप अघोगति में ही जाना पड़ता है। ज्ञानेश इस बात से भली-भाँति परिचित है। अत: उसका सोच यह है कि - "धनेश की पत्नी धनश्री और उसकी छोटी बहिन रूपश्री, जो दिन-रात दुःखी रहने से दु:ख के बीज बोती रहतीं हैं; उन्हें सत्य का ज्ञान कराना अत्यन्त आवश्यक है। अभी उन्हें क्या पता कि - पहले कभी मोहवश ऐसी ही खोटी परिणति या पाप भाव रहा होगा, जिसका फल वे अभी भोग रहीं हैं और अब यदि इसी स्थिति में यह दुर्लभ मनुष्य भव बीत गया तो अनन्त काल तक इसी भवसागर में गोते खाने पड़ेंगे। अत: उन्हें एकबार तो सन्मार्ग दिखाना ही होगा। माने या न मानें, मैं अपना काम तो करूँगा ही।" इस संकल्प के साथ ज्ञानेश उन्हें सन्मार्गदर्शन कराने की योजना बनाने में जुट गया । जहाँ एक ओर रूपश्री का सुरांगना के समान प्रकृति प्रदत्त रूपलावण्य, वहीं दूसरी ओर दयनीय, दुःखद प्रतिकूल पारिवारिक परिस्थितियाँ; जिन्हें देख दानवों के दुष्ट हृदय भी द्रवित हो जायें। विचित्र संयोग : पुण्य-पाप का कैसा विचित्र खेल है इन पूर्वोपार्जित कर्मों का ? परन्तु यह कोई नई बात नहीं है। पुराणपुरुष कोटिभट राजा श्रीपाल इसके साक्षी हैं। जहाँ एक ओर वे करोड़ योद्धाओं के बराबर बल के धारक; वहीं दूसरी ओर उनका कुष्ठरोग से पीड़ित होना और राज-पाट से निष्काषित होकर निर्जन जंगलों में भटकना और दर-दर की ठोकरें खाना । क्या उनके शुभाशुभ कर्मों की विचित्रता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है? यहाँ सीखने की बात यह है कि यदि हम रूपश्री की भाँति रोतेरोते दुःखद जीवन नहीं जीना चाहते, दुःख नहीं भोगना चाहते हैं तो हम हँसते-हँसते अपने ऐश-आराम के लिए दूसरों के जीवन से खिलवाड़ न करें, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कार्य न करें।' सर्वगुण-सम्पन्न होतेहुए भी रूपश्री का बाल्यकाल तो रोते-रोते बीता ही है, यौवन भी आशा-निराशा के झूले में झूलते रहने से व्याकुलता में ही बीत रहा है। यह भी उसके पाप कर्मों का ही फल है। ___पीढ़ियों से धनाढ्य होने पर भी दुर्व्यसनों में लिप्त हो जाने से अभावों के गहरे गर्त में पड़ा पिता; सब ओर से पीड़ादायक अनिष्ट संयोगों से घिरी बड़ी बहिन धनश्री; जिसका कोई भविष्य नहीं - ऐसा नाबालिग छोटा भाई। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में रूपश्री का न कोई संरक्षक, न कोई सहारा। ध्यान रहे, ऐसे संयोग भी पाप कर्मके फल में ही तो मिलते हैं। 'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी' की उक्ति को याद करकरके आहें भरती रूपश्री सशंक भयभीत मृगी की भाँति अपना आश्रय खोजती यत्र-तत्र भटकती हुई अपनेदुर्दिन बिता रही थी।

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