Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ ६६ ये तो सोचा ही नहीं तो कुछ भी नहीं है। मान लो, किसी को हार्टअटेक ही आ गया और तत्काल ऑपरेशन कराना पड़ा तो तीन-चार लाख से भी पूरा नहीं पड़ता आज के युग में। वह इतना पैसा लायेगा कहाँ से? आज दैनिक घरेलू खर्च भी कम नहीं होते। मंहगाई आसमान को छू रही है। ऐसी स्थिति में यदि उसके पास पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हुए तो क्या बीतेगी उस बेचारे पर ? किसके सामने हाथ फैलायेगा वह? किसी पर भी ऐसा भरोसा नहीं किया जा सकता कि हाथ फैलाने पर भी समय पर सहयोग मिल ही जायेगा । अतः अपनी स्वयं की आजीविका का स्थाई और पर्याप्त साधन तो होना ही चाहिए। धर्मात्मा होने का अर्थ दरिद्रता तो नहीं है । दरिद्रता तो सद्गृहस्थ के लिए अभिशाप है अभिशाप । एतदर्थ उचित आय के साधनों की जरूरत तो धर्मात्माओं को भी है ही; परन्तु उसके गले यह बात कैसे उतरेगी ? यद्यपि कुछ दम नहीं रही। केवल ब्याज बलबूते पर अकेला दैनिक खर्च चलाना ही कठिन है। हो सकता है अब उसकी समझ में मेरी बात आ जाय ? एक बार कोशिश करने में हर्ज ही क्या है ? फिर यह बिजनिस तो उसके लिए वरदान साबित होगा; क्योंकि जो वह चाहता है, वे सब बातें इस बिजनिस में हैं।" इन विचारों में डूबे धनेश को रात भर नींद नहीं आई। धनेश के ऊपर ज्ञानेश का बहुत बड़ा उपकार भी है। ज्ञानेश के सन्मार्गदर्शन से ही धनेश के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ था। उसने नैतिक मूल्यों का मार्गदर्शन देते समय ज्ञानेश से यह सूक्ति भी सुनी थी कि 'नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति', फिर भला धनेश ज्ञानेश के उपकार को कैसे भुला सकता है? उसने सोचा- "जिस व्यक्ति ने मुझे ऐसे सन्मार्ग पर लगाया, जिससे मुझे जीवनदान मिला, मेरे पूरे परिवार का उद्धार हुआ, उसके लिए मैं जो भी कर सकूँ, कम ही है। " 35 सही साध्य हेतु सही साधन आवश्यक ६७ प्रातः होते ही धनेश नित्यकर्म से निबटकर ज्ञानेश के पास गया और उसने रात भर अपने विचारों के अन्तर्द्वन्द से ज्ञानेश को अवगत कराया। ज्ञानेश ने पहले तो उसके कथन को पूर्ण गंभीरता से सुना और फिर मुस्करा कर कहा - "मैं तुम्हारी नेक सलाह की कद्र करता हूँ; और तुमने जो कदम उठाया है, उसके लिए बधाई देता हूँ।" जीवन निर्वाह के लिए स्थिर आजीविका तो चाहिए ही । एतदर्थ मैंने भी बहुत सोचा था और इस दिशा में यह निश्चय किया था कि - 'मैं भी अर्थोपार्जन हेतु काम तो करूँगा; परन्तु ऐसा कोई काम नहीं करूँगा, जिससे गरीबों का शोषण हो, जो शासन की दृष्टि में अपराध हो और अनैतिक हो, आकुलतावाला हो, अधिक रिस्की हो, निन्दनीय हो । " ज्ञानेश की बातें सुनकर धनेश मन ही मन प्रसन्न हुआ, उसने सोचा" मेरा काम बन ही गया समझो; क्योंकि मैंने जो बिजनिस शुरू किया है, उसमें तो ये सब विशेषतायें है।" धनेश ने ज्ञानेश के विचारों से सहमति जताते हुए कहा – “आपका कहना बिल्कुल सच है - ऐसा ही कोई काम देखेंगे, जो आपके विचारों के अनुकूल होगा।” ज्ञानेश ने कहा – “यह दुकान भी अब मुझे नहीं पुसाती; क्योंकि दिनभर दुकान पर बैठे ग्राहकों का ही चिन्तन करते रहो; जैसे बगुला पानी पर एक टांग से खड़ा रहकर मछली का चिन्तन करता है, उसीतरह दुकानदार ग्राहक का चिन्तन करता है, उसके लिए एक - एक ग्राहक परमेश्वर जैसा अन्नदाता लगता है। इसकारण भगवान का ध्यान छोड़कर दिनभर ग्राहकों का ही ध्यान चलता है। ऐसा धंधा भी किस काम का जिसमें निरन्तर पाप का ही परिणाम चलता रहे। " ..

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