Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 72
________________ ये तो सोचा ही नहीं १४३ 73 १४२ ये तो सोचा ही नहीं आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने लिखा है कि "कषाय-भाव पदार्थ के इष्ट-अनिष्ट मानने पर ही होते हैं और कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट हैं नहीं; अत: पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है। लोक में सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के कर्ता हैं. कोई किसी को सुखदायक-दुखदायक, उपकारी-अनुपकारी नहीं है। यह जीव ही अपने परिणामों में उन्हें सुखदायक-उपकारी मानकर इष्ट जानता है अथवा दुःखदायक-अनुपकारी जानकर अनिष्ट मानता है, क्योंकि एक ही पदार्थ किसी को इष्ट लगता है, किसी को अनिष्ट लगता है। जैसे वर्षा किसी को अच्छी इष्ट लगती है किसी को अनिष्ट ।......" एक लोकोक्ति है कि - माली चाहे बरसना, धोबी चाहे धुप्प। साहू चाहे बोलना, चोर चाहे चुप्प।। एक व्यक्ति को भी एक ही पदार्थ किसी काल में इष्ट लगता है, किसी काल में अनिष्ट लगता है तथा व्यक्ति जिसे मुख्यरूप से इष्ट मानता है, वह भी कभी अनिष्ट लगता है तथा जिसे मुख्यरूप से इष्ट मानता है, वह भी कभी अनिष्ट होता देखा जाता है। जैसे शरीर इष्ट हैं. परन्तु रोगादि सहित हो तो अनिष्ट हो जाता है। तथा जैसे मुख्यरूप से गाली अनिष्ट लगती है, परन्तु ससुराल में वही गाली इष्ट लगती है। इसप्रकार पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना नहीं है। यदि पदार्थों में इष्टअनिष्टपना होता तो जो पदार्थ इष्ट है, वह सभी को इष्ट ही होना चाहिए और जो अनिष्ट है, वह सभी को अनिष्ट ही होना चाहिए; परन्तु ऐसा है नहीं। यह जीव कल्पना द्वारा उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानता है सो यह कल्पना झूठी है।" इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष करना मिथ्या है। देखो, भाई ! दु:खी होने से काम नहीं चलेगा। प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करने की एक विधि होती है। उसे अपनाना पड़ेगा। एतदर्थ प्रथम शास्त्र स्वाध्याय द्वारा अपने ज्ञान स्वभावी भगवान आत्मा के विषय में इतनी बातों का निश्चय करो कि "मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है ? फिर पर की प्रसिद्धि करने में हेतुभूत जो इन्द्रियाँ हैं, उन पर से अपने उपयोग को हटाकर आत्मसम्मुख करने का प्रयास करो। एतदर्थ पर के कर्ता-कर्म बनने के भार से निर्भार होना होगा, विश्व की कारण-कार्य व्यवस्था समझना होगी, यदि हम वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त में पुण्य-पाप मीमांसा को समझ लें तो धीरे-धीरे आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान होगा ही नहीं। ___ यदि हमारा आत्मा-परमात्मा से सही अर्थों में परिचय हो जाय, उनसे प्रीति हो जाय तो वे बारम्बार हमारे ध्यान में आने लगेंगे। जिनसे हमारा घनिष्ठ परिचय और प्रीति हो जाती है, वे हमारे ध्यान में आये बिना नहीं रहते। अतः आत्मा-परमात्मा से परिचय करो, प्रीति स्वतः हो जायेगी और स्मरण होने लगेगा। यही रीति है धर्मध्यान करने की। ___ ज्ञानेश का यह धर्मध्यान पर हुआ सटीक प्रवचन सुनकर सबकी समझ में यह आ गया कि जब तक हम किसी विषय को जानेंगे/ पहचानेंगे नहीं, तब तक उसके प्रति प्रीति ही उत्पन्न नहीं होगी। प्रीति के बिना प्रतीति नहीं आयेगी, आत्म विश्वास नहीं होगा और आत्मविश्वास के बिना तो दुनिया में कोई भी काम करना संभव नहीं है, फिर धर्म-ध्यान कैसे हो सकेगा ? अतः सबने ज्ञानेशजी की बात का अनुकरण करने का मन बना ही लिया।

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