Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 71
________________ ये तो सोचा ही नहीं १४१ 72 १४० ये तो सोचा ही नहीं इतना सुनते ही धनश्री का तो हाल ही बेहाल हो गया, रूपश्री भी फूट-फूटकर रो पड़ी। सेठ लक्ष्मीलाल के मुँह से निकला - “अहो ! हमें तो इन बातों की खबर ही नहीं थी। हमने तो ये सब सोचा ही नहीं, हम तो पुण्यकर्मो के फल में प्राप्त विषय भोगों में ऐसे तन्मय हो गये हैं कि मानो हमें स्वर्गों की निधियाँ मिल गई हों; पर ये तो हमें नरक में पहुँचाने के साधन सिद्ध हो रहे हैं। ये संपत्तियाँ तो चारों ओर से विपत्तियाँ बनकर हमारे माथे पर मधुमक्खियाँ-सी मंडरा रही हैं, जो डंक मार-मारकर मरणासन्न कर देंगी। ज्ञानेशजी के कहे अनुसार इनसे बचने का एकमात्र उपाय सम्यग्ज्ञान के सागर में डूब जाना ही है; एतदर्थ उस ज्ञान के सागर को प्राप्त करने की पात्रता और विधि क्या है ? हमें यह जानना होगा अन्यथा ये विपत्तियाँ हमारा पीछा छोड़ने वाली नहीं हैं।" धनेश ने भी सेठ लक्ष्मीलाल की हाँ में हाँ मिलाई । सबने निश्चय किया - “आज तो ज्ञानेश से इन पाप भावों से बचने के उपायों पर ही प्रवचन करने का निवेदन करेंगे।" सेठ लक्ष्मीलाल ने ज्ञानेश से निवेदन किया - "आपने जो आर्तरौद्र ध्यानों के बारे में विस्तार से विवेचन किया, तदनुसार तो हमारा पूरा परिवार इन पाप भावों में ही डूबा है। इनसे बचने का मार्गदर्शन करें। ज्ञानेश ने कहा - "ऐसे भी बिजनिश हैं, जिसमें दूसरों को ऊपर उठाने से हम स्वयं ऊपर उठते जाते हैं। आप लोग जो भी धंधा करते हैं, उसका निरीक्षण करें यदि उसमें परोपकार करने के साथ स्वयं की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है तो उसे ही करें; अन्यथा यदि संभव हो तो बिजनिश बदल लें। ऐसा कोई बिजनिश करें, जिसमें अहिंसक तरीके से अपनी न्याय-नीति की आजीविका के साथ दूसरों का भी भला हो। ऐसा करने से आजीविका के साथ पुण्य लाभ भी हो सकता है। सेठ लक्ष्मीलाल ने पुनः निवेदन किया - “धनेश, धनश्री एवं रूपश्री तो दिन-रात आँसू बहाया करती हैं। उन्हें भी आप इस पापपंक से पार होने का उपाय बताइए।" ज्ञानेश ने सोचा - “इष्ट-अनिष्ट मिथ्या कल्पनायें हैं, इस कथन पर चर्चा करने से धनश्री एवं रूपश्री के मानस पर अनिष्ट संयोग एवं इष्ट वियोग से उत्पन्न हुए कष्टों के हरे-भरे घावों पर थोड़ी-बहुत मरहमपट्टी तो हो ही जायेगी। अत: पहले इष्ट-अनिष्ट की मान्यता कैसे मिटे - यह समझाना ही ठीक है।" ऐसा विचार कर ज्ञानेश ने कहा - "मूलत: कोई भी वस्तु या व्यक्ति अपने आप में न इष्ट है न अनिष्ट है; क्योंकि जिनके राग-द्वेष समाप्त हो जाते हैं, उन सिद्ध भगवन्तों के शब्द-कोष में इष्ट-अनिष्ट शब्द ही नहीं होते। इसी से सिद्ध है कि- ये "इष्ट-अनिष्ट" शब्द मात्र राग-द्वेष की उपज है। मोह-राग-द्वेष के अभाव में इनका भी अस्तित्व नहीं रहता। इष्टानिष्ट कल्पना व मोह-राग-द्वेष का परस्पर ऐसा घना संबंध है कि जहाँ मोह-राग-द्वेष होते हैं, वहाँ इष्ट-अनिष्ट कल्पना होती ही है और जहाँ इष्ट-अनिष्ट कल्पना होती है, वहाँ मोह-राग-द्वेष भी होते हैं। तत्त्वज्ञान एवं वस्तुस्वरूप की समझ से जब परपदार्थ इष्ट व अनिष्ट भासित ही नहीं होते तो मुख्यत: राग-द्वेष व कषायें उत्पन्न ही नहीं होतीं। अपना कर्तव्य तो केवल तत्त्वाभ्यास करना और विश्वव्यवस्था और आत्मा-परमात्मा का स्वरूप समझना ही है। इसी के बल से आर्त-रौद्रध्यान का प्रभाव कम होते-होते क्रमश: अभाव होगा और धर्मध्यान का प्रारंभ होगा।

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