Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 80
________________ तेईस ज्ञानेश तो सचमुच ज्ञानेश ही है ज्ञानेश की अन्तर्रात्मा से निकले करुण और शांत रस से ओतप्रोत मर्मस्पर्शी उद्गारों ने तो श्रोताओं को प्रभावित किया ही; उसके अन्तर्बाह्य व्यक्तित्व ने भी आस-पास के वातावरण को सुरभित कर दिया था। धनश्री, रूपश्री और उनके साथी तो मानो कृतार्थ ही हो गये। इन लोगों को तो ज्योंही अपने पुराने दिन याद आते तो उनके रोंगटे खड़े हो जाते, रूह काँप जाती। इन्हें तो अब ज्ञानेश ही अपने सर्वाधिक शुभचिन्तक लगने लगते थे। जब कभी फुरसत के समय घंटा आधा घंटा एक साथ बैठते तो बस ज्ञानेश ही उनकी जुबान पर होते । धनेश कहता - " सचमुच ज्ञानेशजी जैसा व्यक्ति इस युग में तो दिखाई नहीं देता। एक दिन वह था जब मुझे अपनी पढ़ाई पर गर्व था और ज्ञानेशजी पर मुझे मित्र के नाते दया आती थी । उसकी लौकिक शिक्षा सिम्पल ग्रेजुएट तक ही हो पाने का मुझे अफसोस रहा करता था; परन्तु देखते ही देखते वे कहाँ से कहाँ पहुँच गये और मैं अपने को तीसमारखाँ समझने वाला कहाँ जा गिरा ? मैं जानता हूँ कि यह सब अचानक नहीं हुआ। ये बीज तो उनमें बचपन से ही थे, पर हरएक को ऐसी परख कहाँ होती है ? मैं भी उन्हीं में से एक हूँ, जो उन्हें पहचान ही नहीं पाया। वे सचमुच तो धूल में ढके हीरा निकला । एक वह, जिस पर आज हम तुम ही क्या, सारा समाज गर्व करता है। जो एक बार भी उसके सम्पर्क में आता है, वह उन पर समर्पित हो 81 ज्ञानेश तो सचमुच ज्ञानेश ही है। १५९ जाता है। दूसरा मैं हूँ, जो न केवल ज्ञानेशजी की दृष्टि में; बल्कि अपने समस्त समाज की दृष्टि में दया का पात्र बन गया हूँ। सचमुच यह धर्म का ही कोई अद्भुत प्रभाव है, जिसकी मैंने अबतक कोई कद्र नहीं की । निरन्तर अशुभ भावों में ही जिया । मति के अनुसार गति होनी थी सो हो गई। जब-जब मुझे ऐसा पश्चाताप होता है और मैं ज्ञानेशजी से अपने दिल का दर्द कहता हूँ तो वे कहते हैं - भाई ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। तुम ही क्या ? अभी तो हम-तुम सभी एक ही श्रेणी में हैं, स्वभाव से तो सभी भगवान हैं; पर भूले हुए भगवान हैं । सत्य बात समझ में आने का भी अपना स्वकाल होता है । देखो, समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कभी कुछ भी नहीं मिलता। अतः भूत को भूलो, भविष्य की चिन्ता छोड़ो और वर्तमान में आध्यात्मिक अध्ययन, मनन, चिंतन करो; भविष्य स्वत: सम्हल जायेगा।" सेठ लक्ष्मीलाल ने कहा - "हाँ भाई धनेश ! तुम ठीक कह रहे हो। ज्ञानेशजी तो सचमुच ज्ञानेश ही हैं। यदि और कोई होता हो हमें आश्वस्त करने के बजाय, अपनाने के बजाय, बचपन में हुए हमारे दुर्व्यवहार की याद दिला दिला कर हमें नीचा दिखाता और अपमानित करता । पर ज्ञानेशजी ......! वह तो सचमुच देवता है, देवता । मुझे ही देखो न ! मैंने अपनी सेठाई के अभिमान में जिनकी थोड़ी भी उपेक्षा की, वे आज बड़े क्या बन गए; मुझसे एक-एक बात का बदला लेने पर तुले रहते हैं। ऐसी है जगत की प्रवृत्ति | वह तो ज्ञानेशजी ही ऐसे हैं, जिसने भूत को भुलाकर अपन लोगों पर असीम उपकार किया है। ज्ञानेशजी के कारण ही मुझे धर्म का कुछ-कुछ ज्ञान हुआ है, अन्यथा हम तो सुबह से शाम तक अपने नकली प्रशंसकों और चापलूसों

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