Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 81
________________ 82 १६० ये तो सोचा ही नहीं से घिरे रहकर दानवीर, कर्मवीर, धर्मवीर आदि विशेषणों से युक्त प्रशंसा की मदिरा पीकर पागल हो रहे थे और न्याय-अन्याय से अर्जित धन को उनके कहे अनुसार पानी की तरह बहा कर उससे प्रसन्न हो कर परिग्रहानन्दी खोटा रौद्रध्यान कर रहे थे। ____ हमें अपने शुभ-अशुभ भावों की कुछ भी पहचान नहीं थी। हमने कभी सोचा ही नहीं कि - इन भावों का फल क्या होगा ? सचमुच यदि ज्ञानेश के रूप में वह धर्मावतार न मिला होता तो हमने तो नरक जाने की ही तैयारी कर ली थी। धन्य है इस सत्पुरुष को । यह दीर्घायु हो और हम सबके कल्याण में निमित्त बना रहे - मेरी तो यही मंगल भावना है।" ___ मोहन यह सब सुन-सुनकर गद्गद् हो गया। आँसू पोंछते हुए बोला - "यदि हम लोगों को ज्ञानेश का सत्समागम न मिला होता, उनसे प्रेरणा और आश्वासन न मिला होता, उनकी अमृतमय वाणी सुनने को नहीं मिली होती तो हम तो दुर्व्यसनों की दल-दल में से निकल ही नहीं पाते। ज्ञानेशजी के प्रवचनों के अलावा उनके पवित्र जीवन से भी प्रेरणा मिली है। आज मैं जो कुछ भी समझ सका हूँ, ज्ञानेशजी की देन है।" ___ रूपश्री और धनश्री तो फूट-फूट कर रो ही पड़ी। नारियाँ भावुक तो स्वभावतः होती ही हैं। फिर ज्ञानेश के सत्समागम से इन्हें जो वचनातीत लाभ हुआ था, उससे वे गद्गद् हो रही थीं। वे कुछ न कह सकीं, पर कुछ न कह कर भी उन्होंने उद्धव की गोपियों की भाँति आँसुओं और हिचकियों से सब कुछ कह दिया - नेकु कही बैननि, अनेक कही नैननि । रही-सही सोऊ कह दीनी हिचकीनि सौं।। ज्ञानेश तो सचमुच ज्ञानेश ही है १६१ सेठ लक्ष्मीलाल से चुप नहीं रहा गया । वह पुन: बोला - "देखो, पुण्योदय से मुझे किसी खास आधि-व्याधि ने नहीं सताया, कोई मानसिक चिन्तायें नहीं रही, शारीरिक रोग नहीं हुए तो मैं यश एवं प्रतिष्ठा के प्रलोभन में आकर समाजसेवा की उपाधियों में ही उलझ गया। समाजसेवा का काम भी पवित्र भाव से नहीं कर पाया। उनमें भी यश, प्रतिष्ठा का लोभ तो रहा ही, साथ में व्यक्तिगत स्वार्थ भी कम नहीं रहा। यदि ज्ञानेश जैसे सत्पुरुष को समागम न मिला होता तो मैं उन अशुभ भावों की कीचड़ से निकल ही नहीं पाता। एक प्रवचन में ज्ञानेश ने कहा था कि - "जो व्यक्ति राष्ट्रसेवा एवं समाज सेवा के नाम पर ट्रस्ट बनाकर अपने काले धन को सफेद करते हैं और उस धन से 'एक पंथ अनेक काज' साधते हैं - उनकी तो यहाँ बात ही नहीं है। उनके वे भाव तो स्पष्टरूप से अशभ भाव ही हैं। सचमुच देखा जाय तो वे तो अपनी रोटियाँ सेकने में ही लगे हैं। वे स्वयं ही समझते होंगे कि सचमुच वे कितने धर्मात्मा है; पर जो व्यक्ति अपने धन का सदुपयोग सचमुच लोक कल्याण की भावना से जनहित में ही करते हैं, उसके पीछे जिनका यश-प्रतिष्ठा कराने का कतई/कोई अभिप्राय नहीं होता, उन्हें भी एक बार आत्मनिरीक्षण तो करना ही चाहिए, अपने भावों की पहचान तो करना ही चाहिए कि उनके इन कार्यों में कितनी धर्मप्रभावना है, कितनी शुभभावना है और कितना अशुभभाव वर्तता है ? आँख मींचकर अपने को धर्मात्मा, दानवीर आदि माने बैठे रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है।' ज्ञानेश के उस उपदेश ने मेरी तो आँखे ही खोल दीं। मेरे तो जितने भी निजी ट्रस्ट हैं, उन सबके पीछे मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ जुड़े हैं। सचमुच

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