Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 79
________________ सच्चा मित्र वह जो दुःख में साथ दे १५७ 80 १५६ ये तो सोचा ही नहीं ज्ञानेश ने एकबार धनेश को संबोधित करते हुए कहा - संयोग में प्राप्त वस्तुओं का स्वरूप सर्वज्ञ परमातमा ने जैसा जाना है, देखा है, वैसा ही निरन्तर परिणमता है। अत: संयोगों को इष्ट-अनिष्ट मानकर सुखी-दुःखी होना निष्फल है। ऐसे विचार से ही समता आती है।" जितनी देर ज्ञानेश धनेश के पास बैठा रहता और उसे चर्चा में रमाये रहता, तब तक तो उसे दर्द का अहसास ही नहीं होता । थोड़ाबहुत दर्द की ओर ध्यान जाता भी तो तत्काल विषय बदलकर पुनः बातों में लगा लेता। “देखो धनेश ! आत्मा-परमात्मा की चर्चा-वार्ता करना भी धर्मध्यान ही है। ध्यान अकेले आँख बंद कर बैठने से ही नहीं, चलतेफिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते भी होता है। अत: तुम निरंतर ऐसा ही कुछ न कुछ सोचा करो तो पीड़ा से भी बचोगे और पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान से भी बचोगे।” इस तरह धनश्री से, ज्ञानेश से तथा अन्य मिलने-जलने आने वालों से चर्चा-वार्ता करने में धनेश का ध्यान बँटा रहने से दिन तो आराम से कट जाता; पर रात में अकेला पड़ते ही दर्द अधिक महसूस होने लगता। कुछ बीमारियाँ तो बदनाम ही हैं, जैसे - दमा तो दम लेकर ही जाता है। कैंसर का कोई इलाज नहीं है, टी.बी. भी प्राणलेवा रोगों में एक है। लीवर,किडनी के नामों से भी लोग घबराते रहे हैं। धनेश उन्हीं रोगियों में एक है, जो अपनी ही भूल से एक साथ ऐसे ही अनेक प्राणलेवा रोगों से घिर चुका है। उसके बचने की अब किसी को कोई आशा नहीं रही है। पर यह आवश्यक तो नहीं कि प्राणलेवा बीमारियाँ प्राण लेकर ही जायें। यदि आयुकर्म शेष हो और असाता कर्म का अन्त आ जाये तो बड़ी से बड़ी बीमारियाँ भी समाप्त होती देखी जाती हैं। जिन बीमारियों से पिण्ड छुड़ाना धनेश को पश्चिम से सूर्य उदित होने जैसा असंभव लगने लगा था, वे बीमारियाँ भी डॉक्टरों के प्रयास और धनेश व धनश्री के भाग्योदय से धीरे-धीरे ठीक हो गईं। धनेश जब लम्बी बीमारी के बाद शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होकर धनश्री के साथ सायंकालीन गोष्ठी में सम्मिलित हुआ तो सभी को प्रसन्नता हुई। ज्ञानेश ने भी हर्ष व्यक्त किया और मुस्कराकर उसको स्वास्थ्य लाभ के लिए बधाई दी और कहा - “कहो धनेश ! अब तुम्हारी तबियत बिल्कुल ठीक है न ? चेहरे से अब तुम काफी ठीक लग रहे हो। अब तुम्हें स्वांस की भी वैसी तकलीफ नहीं दीखती जैसी पहले थी। अच्छा हुआ तुम स्वस्थ हो गये। तुम्हारी बीमारी की सभी को चिन्ता थी।" धनेश ने मुस्कराते हुए औपचारिक भाषा में विनम्र भाव से कहा - "हाँ, आप सबकी शुभकामनाओं से और भली होनहार से बच गया हूँ। बस अब मेरा शेष जीवन आपकी शरण में ही समर्पित रहेगा - ऐसा मेरा दृढ़ संकल्प है।

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