Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 77
________________ १५२ ये तो सोचा ही नहीं पर तथा कर्म के सिद्धान्त का परिचय होने पर धर्मध्यान स्वयमेव होने लगता है। धार्मिक सिद्धान्तों के सहारे अपने में समता भाव जगाना ही तो धर्मध्यान है; वह एकान्त में बैठकर भी हो सकता है और चलते-फिरते भी होता रहता है। अतः निश्चिन्त होकर देह और आत्मा को, निज और पर को पृथक्-पृथक् जानने का अभ्यास करें। शास्त्राभ्यास से पर में एकत्व - ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व की धारणा को निर्मूल करें। धर्मध्यान करने में सबसे बड़ी बाधा नशे की आदत है, जिसे हम बिल्ली पर हुए प्रयोग से समझ सकते हैं। एक बिल्ली को २४ घण्टे एक जाली के अन्दर भूखा रखा, उसके बाद एक चूहा छोड़ा गया, बिल्ली ने प्रथम प्रयास में ही उसका शिकार करके भूख मिटा ली। दूसरे दिन फिर २२ घण्टे बाद पहले उसे एक कप दूध में थोड़ी-सी भंग पिलाई, और थोड़ी देर में फिर चूहा छोड़ा तो अनेक प्रयत्न करने पर भी वह चूहा को नहीं पकड़ सकी; क्योंकि भंग के नशे ने उसके चित्त को भ्रमित और शरीर को शिथिल कर दिया था। इसीप्रकार जो नशा करता है, वह अपने लक्ष्य में कभी सफल नहीं होता और धर्मज्ञान एवं आत्मज्ञान के बिना कोई भी आसन और प्राणायाम आदि क्रियायें हमें धर्मध्यान की मंजिल पर नहीं पहुँचा पायेंगी।" पुण्य के उदय से और ज्ञानेश के सान्निध्य से धनेश और धनश्री के जीवन में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ, वह सभी को अनुकरणीय है। ... 78 बाईस सच्चा मित्र वह जो दुःख में साथ दे नशे और सिगरेट से धनेश का लीवर और फेफड़े खराब हो गये थे । ये दो ऐसे प्राण - लेवा मर्ज हैं जो मरीज को कहीं का नहीं छोड़ते। इनसे मरीज को वेदना तो मरणतुल्य होती है, पर वह जल्दी मरता भी नहीं है। खाँसते-खाँसते हाल बेहाल हो जाता है। ऐसी दयनीय दुर्दशा हो जाती है कि देखनेवालों को भी रोना आ जाये । धनेश को दमा के दौरे दिन में एक-दो बार नहीं, अनेक बार आने लगे। दौरों से दम घुटने लगता, दम घुटने से वह पसीना-पसीना हो जाता। बेचैनी बढ़ने से वह अधीर हो उठता, दुःखद स्थिति में धैर्य धारण करने का वह संकल्प डगमगाने लगता, जो उसने ज्ञानेशजी के उपदेश से अभी-अभी किया था। उसे ऐसा लगता कि मानो ज्ञानेश द्वारा दिया गया पुण्य-पाप के फल में धीरज रखने का उपदेश उसके धैर्य की परीक्षा ले रहा हो । यद्यपि धनश्री को मानवीय कमजोरी के कारण कभी-कभी अपने दुर्भाग्य पर और पति के दुर्व्यसनों पर भारी झुंझलाहट होती तथा खीज भी खूब आती, पर उसके हृदय में धनेश के प्रति असीमित आदरभाव था, हार्दिक प्रेम था, सहानुभूति थी, समपर्ण भी था । क्यों न होता ? भारतीय संस्कृति में पति को परमेश्वर तुल्य मानने के संस्कार जन्म से ही दिए जाते हैं न ! धनेश को सन्मार्ग पर लाने का श्रेय ज्ञानेश के सिवाय यदि किसी को जाता है तो वह एक मात्र उसकी धर्मपत्नी धनश्री को ही है । धनश्री का मानना रहा कि 'पाप से घृणा करो पापियों से नहीं।' पापी तो एक दिन पाप का त्यागकर परमात्मा तक बन जाते

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