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ये तो सोचा ही नहीं फड़फड़ाता हुआ इधर से उधर, उधर से इधर भागता फिरता है, अंधेरे में जाकर बैठता है । वह समझता होगा कि अंधेरे में कीड़ों से काटने से बच जाऊँगा। उस बेचारे को यह पता नहीं कि दुःख का कारण बाहर नहीं, मेरे कान के अन्दर ही विद्यमान है। यही स्थिति हमारी है । कर्म के कीड़े तो हमारे ही अन्दर हैं न ? इधर-उधर भागने से क्या होगा? कर्म तो पीछा छोडेंगे नहीं ? अज्ञान दशा में जो भी बाहर के उपाय हम करते हैं, वे सब झूठे हैं।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कहते हैं- "अनादि-निधन सभी वस्तुयें भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा में परिणमित होती हैं। कोई किसी के आधीन नहीं है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होती। परमाणु-परमाणु का परिणमन स्वतंत्र है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं है।
ज्ञानेश के सम्पर्क में आने के पहले जब धनश्री को तत्त्वज्ञान नहीं था; तब वह भी निरन्तर यह सोच-सोचकर दुःखी रहती थी कि - "माँ की, मेरी, रूपश्री की और मेरे भाई जीवन्धर की जो दुर्दशा हुई, इसका एक मात्र कारण मेरे पिता हैं। उनके दुर्व्यसनों के कारण हम कहीं के नहीं रहे।"
जब से धनश्री धर्मपुरुष ज्ञानेश के सम्पर्क में आई, ज्ञानेश से तत्त्वोपदेश सुना-समझा और धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की श्रद्धावान बनी, तब से जब कभी उसे बचपन की याद आती है तो वह सोचती है कि - "मैं भूल में थी, तब कुछ समझती नहीं थी। इस कारण सारा दोष पिताजी के माथे मढ़ा करती थी। “वस्तुतः जगत में जितने जीव हैं, वे सब अपने किये पुण्य-पाप का ही फल भोगते हैं, दुःखी-सुखी करनेवाला यदि अन्य कोई हो तो हमारे द्वारा किये गये पाप-पुण्य का क्या होगा ? अत: किसी अन्य को अपने दुखों का कारण मानना, दूसरों के दोष देखना मूर्खता है। कोई भी पर पदार्थ भला-बुरा नहीं है,
करनी का फल तो भोगना ही होगा इष्ट-अनिष्ट नहीं है। अपने राग-द्वेष एवं अज्ञान से ही वे हमें भले-बुरे प्रतीत होते हैं।"
धनश्री को जब भी पूर्व दुःखद स्मृतियाँ सताती तो वह तुरंत ही पुराण पुरुष राम, हनुमान, सीता, द्रोपदी, अंजना जैसे पुण्यात्माओं के आदर्श जीवन और उन पर आयी अप्रत्याशित विपत्तियों को याद करके मन ही मन समाधान पा लेती। यदि पुराण पढ़कर उनके पात्रों से प्रेरणा न ले सके, कुछ सबक न सीख सके तो पुराण पढ़ने का प्रयोजन ही क्या रहा? __ वैसे तो शास्त्र और पुराणों के माध्यम से एवं देव-गुरु के धर्मोपदेश पर अमल करने से धनश्री एवं धनेश को अब सहज ही चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते धर्मध्यान होने लगा। फिर भी वह दोनों सांध्यकालों में दो-दो घड़ी शान्ति से एकान्त में बैठकर मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक परमात्मा वाचक मंत्रों का एवं आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करके चित्त को एकाग्र करने का पुरुषार्थ भी करती, ताकि उपयोग में आत्मस्थ होने की पात्रता प्रगट हो सके।
धनश्री ने धनेश को संबोधित करते हुए कहा - "जिसतरह हमें अज्ञान अवस्था में अपने आर्त-रौद्रध्यान रूप पापभावों की पहचान नहीं थी; इसीतरह बहुत से लोगों को अपने विशुद्ध भावों का भी पता नहीं होता। इसकारण वे घबराते हैं, सोचते हैं कि - हाय ! हम क्या करें? धर्मध्यान तो हमसे होता ही नहीं है, हम तो कभी धर्मध्यान करते ही नहीं हैं। हम कभी दस मिनट बैठकर मन को एकाग्र कर नहीं पाते। अत: हमें धर्मध्यान की प्राप्ति कैसी होगी ?"
पर, उन्हें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, चिन्ता करने से कुछ होता भी नहीं है। महापुरुषों की संगत से धर्म का यथार्थ ज्ञान होने