Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ सफल व्यापारी कौन १२३ 63 १२२ ये तो सोचा ही नहीं मैं इस औषधि के द्वारा रोगियों को निरोग करके उनके दुःख को दूर कर सकूँगा, मरणासन्न व्यक्तियों को जीवनदान देकर उनका भला कर सकूँगा। मैं इस औषधि से जन-जन का उपचार करके अपने जीवन को धन्य कर लूँगा। मैं इसे धनार्जन का प्रमुख साधन नहीं बनाऊँगा। निर्धनों से कम से कम कीमत लेकर भ्रामरी वृत्ति से ही उनका उपचार करूँगा। जैसे भौंरा फूल को नुकसान पहुँचाये बिना ही उसका रस पीता है, मैं भी मरीज का शोषण किए बिना ही उसका उपचार करूँगा।" ऐसी उज्ज्वल भावना से वह पैसा के साथ पुण्य भी अर्जित करता है। दूसरा सोच यह भी हो सकता है कि "अब मेरे हाथ ऐसी निधि लगी है, जिस पर मेरा ही एकाधिकार है, अत: मैं इससे मनमाने पैसे वसूलकर लाखों रुपये कमा सकता हूँ और कुछ दिनों में ही करोड़पति बन सकता हूँ। फिर क्या है, एक बड़ी-सी कोठी होगी, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ होंगी। नौकर-चाकर होंगे। थोड़े से प्रचार करने की जरूरत है; फिर जिसे निरोग होना होगा, जान बचानी होगी; मजबूरन उसे मेरे पास आना ही पड़ेगा और जो मनमानी कीमत मैं मागूंगा; उसे चुकानी ही पड़ेगी। अमीर तो देंगे ही; गरीब भी देंगे। भले कर्ज करके दें, पर देंगे; क्योंकि जान तो उनको प्यारी होती है न ? इसी उद्देश्य से तो लोग गुणकारी/ औषधीय वस्तुओं के पेटेन्ट कराकर अपना एकाधिकार सुरक्षित भी कराते हैं।" ऐसे स्वार्थी व्यापारी लोग निष्ठुर विचारों से पाप कर्मों का बन्ध करते हैं, ऐसी खोटी भावना रखने से यह भी संभव है कि रोगी उसकी बात पर विश्वास ही न करें और उपचार कराने आयें ही नहीं; क्योंकि बुरे भावों का तो बुरा नतीजा ही होता है न ! इसप्रकार वह कभी करोड़पति बन ही नहीं सकेगा। उसका स्वप्न कभी साकार ही नहीं होगा। अतः परोपकार की भावना से ही काम करें। दूसरों का शोषण करके अपना पोषण न करें, बल्कि दूसरों के पोषण की पवित्र भावना रखें तो आपका पोषण तो सहज में होगा ही। सफल व्यापारी की यही नीति होती है, और होनी चाहिए कि मुनाफे का प्रतिशत कम रखकर अधिक विक्रय करें, अधिक मुनाफा कमाने के प्रलोभन में बिक्री तो कम हो ही जाती है। धीरे-धीरे वह व्यक्ति या फर्म बदनाम भी हो जाता है, जिससे व्यापार ही फेल हो जाता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि निर्लोभी भावना से पुण्यार्जन के साथ धनार्जन भी गारण्टी से होता ही है। तथा लोभ की भावना से पापबन्ध होता है। ज्ञानेशजी के ऐसे जनहित की भावना से ओत-प्रोत विचार सुनकर सभी श्रोताओं ने हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की। ज्ञानेशजी ने आगे कहा - "प्रत्येक बोल को विवेक की तराजू पर तौल-तौल कर ही बोलना चाहिए। जानते हो, बुद्धिमान और बुद्ध में क्या अन्तर है ? जो सोचकर बोलता है वह बुद्धिमान और जो बोलकर सोचता है वह बुद्धू ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86