Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ ११४ ये तो सोचा ही नहीं इसीप्रकार पूर्ण पवित्र भावना से पूर्ण सावधानीपूर्वक डॉक्टर के द्वारा रोगी को बचाने के प्रयत्नों के बावजूद यदि आपरेशन की टेबल पर ही रोगी का प्राणांत हो जाता है तो डॉक्टर को हिंसाजनित पापबंध नहीं होता। वैसे ही चार हाथ आगे जमीन देखते हुए चलने पर भी यदि पैर के नीचे कोई सूक्ष्म जीव मर जाता है तो मारने का अभिप्राय नहीं होने साधु को भी हिंसा का पाप नहीं लगता । वस्तुत: आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है तथा आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है। तात्पर्य यह है कि पाप-पुण्य एवं धर्म-अधर्म जीवों के भावों पर निर्भर करता है। जिन कार्यों में जैसी भावनायें जुड़ीं होंगीं, कर्मफल उनके अनुसार ही प्राप्त होगा । हिंसा की भाँति झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि पापों एवं धर्म-अधर्म के विषय में भी समझ लेना चाहिए। आत्मा घातक होने से झूठ-चोरी-कुशील व परिग्रह पाप भी हिंसा में ही गर्भित हैं । सब आत्मघाती होने से हिंसा के ही विविध रूप हैं; जोकि महादुःख दाता होने से सर्वथा त्याज्य हैं।" समय भी लगभग हो ही चुका था। सभा विसर्जित हुई। सभी लोग भावुक हृदय से अपने-अपने निवास की ओर जाते हुए मार्ग में ज्ञानेश के प्रवचन की चर्चा एवं प्रशंसा करते जा रहे थे। ... 59 सोलह पश्चात्ताप भी पाप है रात के सात बजने को थे कि ज्ञानेशजी अपने निश्चित समय के अनुसार चर्चा करने अपने आसन पर जाकर बैठ गये । सात बजतेबजते सब श्रोता भी आ गये और जिसे जहाँ जगह मिली, चुपचाप बैठ गये । ज्ञानेशजी ने मोहन को आगे बुलाया तो वहाँ बैठे सभी व्यक्तियों की निगाहें प्रश्नसूचक मुद्रा में मोहन की ओर मुड़ गईं, पर कहा किसी ने कुछ नहीं; क्योंकि सबको उसके प्रति सहानुभूति तो थी ही, ज्ञानेशजी प्रति भी ऐसी श्रद्धा थी कि ज्ञानेशजी जो भी करेंगे, ठीक ही करेंगे। उन्हें यह भी पता हो गया था कि ज्ञानेशजी ने मोहन को अभीअभी जीवन - दान दिया है, मौत के मुँह से बचाया है। ज्ञानेशजी से सहानुभूति एवं स्नेह पाकर मोहन मानो कृतार्थ हो गया था। वह आगे आकर चुपचाप नीची निगाहें करके सहमा सहमा सा बैठ गया। दो मिनट तक जब कहीं से कोई प्रश्न नहीं पूछा गया तो ज्ञानेशजी के चित्त में जो चिन्तन चल रहा था, उसे ही चर्चित करने के लिए मोहन के चिन्ताग्रस्त चेहरे को प्रकरण का मुद्दा बनाकर उसने कहा - "मोहन ! तुम्हारे मुख - मण्डल पर जो रेखायें हम देख रहे हैं, वे रेखायें तुम्हारे मनोगत भावों को बता रहीं हैं कि तुम इस समय किस भाव में विचर रहे हो? तुम्हारा मनोगत भाव तुम्हारे चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा है। निश्चित ही तुम्हारा मानसिक सोच किसी कषाय के कुचक्र में फंसा है, राग-द्वेष के जंजाल में उलझा है, मोह-माया से मलिन हो रहा है अथवा कहीं किसी संयोग-वियोग की आशंका की

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