Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ 48 तेरह पाप से घृणा करो, पापी से नहीं ज्ञानेश का मित्र धनेश दुर्व्यसनी लोगों के सम्पर्क में रहने से अपनी झूठी शान-वान के चक्कर में व्यसनी तो हो गया था, पर बेईमान नहीं था। अपने व्यसनों की बुरी आदत के कारण हुई परिवार की परेशानियों को और अपने श्वसुर मोहन के दु:खी परिवार को देखकर अब वह अपने व्यसनों को स्वयं भी बुरा मानने लगा था और उन्हें छोड़ने का मन भी बना चुका था, पर अभी वह छोड़ नहीं पा रहा था। जहाँ कुछ समय पहले वह व्यसनों की बुराईयों को सुन भी नहीं सकता था, वहीं अब वह उन्हें त्यागने का बार-बार संकल्प भी करने लगा था। जब वह ऐसी भावना व्यक्त करता तो ज्ञानेश सहित सभी परिजनपुरजनों को भारी प्रसन्नता होती, बहुत अच्छा लगता; परन्तु उसके संकल्प हफ्ते-दो हफ्ते से अधिक नहीं टिक पाते। इन दुर्व्यसनों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है, जो एक बार फँसा वह फंसता ही जाता है। फिर इनसे उबरना असंभव तो नहीं है, किन्तु बहुत कठिन काम है। इसीकारण इस बार उसके त्याग के संकल्प पर किसी ने कोई खास खुशी जाहिर नहीं की। परन्तु इस बार धनेश ने सचमुच दृढ़ संकल्प के साथ सम्पूर्ण दुर्व्यसनों को जीवनपर्यन्त के लिए तिलांजलि दे ही दी और ज्ञानेश के सान्निध्य में प्रतिदिन नियमित होनेवाले सेमीनारों, संगोष्ठियों में सम्मिलित होने लगा। यदि व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो तो दुनिया में असंभव तो कुछ भी नहीं है। धनेश के व्यसनों से विरक्त होने की चर्चा हवा में गंध की तरह गाँव पाप से घृणा करो, पापी से नहीं भर में फैल गई। सर्वत्र सबके मुँह पर एक ही बात अरे ! सुना आपने! धनेश.... धनेश... .....धनेश ने दुर्व्यसन छोड़ने का पक्का इरादा कर लिया है; आश्चर्य प्रगट करते हुए कोई कहता - यह पश्चिम से सूरज कैसे निकल आया ? कोई कहता - “सौ सौ चूहे मार बिल्ली हज को चली है।” एक आशावादी व्यक्ति बोला - "अरे भाई ! इसमें कौन-सी असंभव बात है, बड़े से बड़े धर्मात्मा भी धर्मात्मा बनने के पहले तो पापी ही थे। पापी ही तो पाप का त्याग कर एक न एक दिन पुण्यात्मा और धर्मात्मा बनते हैं। श्रीकृष्ण के पुत्र शंभुकुमार एवं राजा मधु की पौराणिक कथाएँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ___ हरिवंश पुराण में एक कथा है कि - महारानी जाम्बुवती की कोख से जन्मे शंभुकुमार ने अपनी हवस को पूरा करने की खोटी भावना से अपने पिता श्रीकृष्ण को किसी तरह प्रसन्न करके पुरस्कार स्वरूप एक माह के लिए राज्य सत्ता प्राप्त की थी और जब शंभुकुमार को सत्ता सौंपकर श्रीकृष्ण अज्ञातवास में चले गये तो अवसर पाते ही शंभुकुमार ने अपनी पापमय कामवासना की स्वच्छंद प्रवृत्ति से ऐसे निर्लज्ज कार्य किए कि जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि कर चीख उठी। फिर भी पुराण कहते हैं कि उन्हीं शम्भकमार ने पापों का प्रायश्चित्त करके आत्म-साधना के अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा गृहस्थपना छोड़कर निजस्वभाव साधन द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया। ऐसा ही दूसरा प्रसंग राजा मधु के साथ बना था। उसने अपने अधीनस्थ राजा हरिभद्र की पत्नी चन्द्राभा का अपहरण करके, उसे अपनी रखैल (उप-पत्नी) बनाकर घर में रख लिया। परिणामस्वरूप चन्द्राभा का असली पति अपनी प्रियतमा चन्द्राभा के वियोग में पागल हो गया और गली-गली घूम-घूमकर अपनी पत्नी को वापिस लौटा

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