Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 51
________________ किसने देखे नरक 52 १०० ये तो सोचा ही नहीं बम्बई में पहुँच गया था। वहाँ भाग्योदय से अमेरिका जैसे विकसित देश से व्यापारिक सम्बंध बढ़ाने में सफल हो गया। फलस्वरूप वह दस-बारह वर्ष में ही टाटा-बाटा जैसे उद्योगपतियों की श्रेणी में खड़ा हो गया। ज्ञानेश सोचता है - "अब सेठ के पास आय के इतने अधिक स्रोत हो गये कि यदि वह अपने शेष अमूल्य जीवन का एक क्षण भी उद्योग धंधों में न दे तो भी उसकी आय पर और उद्योग-धंधों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा; क्योंकि उसके व्यापार को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसके पास योग्यतम कार्यकर्ता एवं कर्मचारी तो हैं ही, उसके पुत्र-पौत्र भी उससे अधिक कुशल हो गये हैं और पूरी जिम्मेदारी से काम संभालने लगे हैं। सेठ को डॉक्टर ने पूर्ण विश्राम करने का परामर्श दिया है। उसे दो बार तो हार्ट-अटैक हो चुका है। पर पता नहीं, वह अपनी जान को जोखिम में डालकर अब ऐसा क्यों करता है ? मना करने पर भी क्यों नहीं मानता? जैसा उत्साह और लगन पैसा कमाने में है, काश ! वैसी ही रुचि और लगन आत्मा के कल्याण की होती तो........? यदि सेठ आत्मकल्याण का यह अवसर चूक गया तो पुन: ऐसा सुअवसर पाना असंभव नहीं तो दुर्लभ तो हो ही जायेगा। लगता है सेठ की होनहार ही खोटी है; अन्यथा ये दिन कोई ऐसी मोह-ममता में पड़े रहने और ऐसे बिना मतलब के कामकरने के थोड़े ही हैं। किसी की कोई मजबूरी हो; रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या हो तो बात जुदी है; पर उसके साथ ऐसा कुछ भी तो नहीं है। बम्बई नगर में तो सेठ लक्ष्मीलाल के कोठी-बंगले हैं ही, देशविदेश के प्रमुख औद्योगिक नगरों में भी पोतों के डायमण्ड हाउस बन गये हैं। यदि सेठ चाहे तो चौबीसों घंटों फ्री रह सकता है और अपना पूरा समय धर्म-ध्यान में लगा सकता है; परन्तु वह धर्म-ध्यान की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता है। उसे तो परिग्रह संग्रह और उसके प्रदर्शन में ही आनन्द आता है। हृदयाघात केरोगी होने पर भी सेठ अपने आगंतुक अतिथियों को अपना कारोबार, कोठी-बंगलेतथा चारों ओर बिखरा वैभवघंटों घूम-घूमकर नीचेऊपर चढ़-उतरकर दिखाता है। बीच-बीच में बिना कारण ओ रामू ! अरे श्यामू!! की आवाजें लगा-लगाकर अपने अतिथियों को अपने चेतन परिग्रह का अहसास भी कराता रहता है। यद्यपि धन का होना परिग्रह पाप नहीं है, परन्तु धन में ममत्व एवं सुखबुद्धि परिग्रह पाप है, सेठ लक्ष्मीलाल का भी जो धन में ममत्व है, उसके प्रदर्शन में उसे जो आनन्द आता है, वह आत्मपरिणाम ही परिग्रह पाप है। अपने पाप-पुण्य के भावों की पहचान के अभाव के कारण सेठ इस पाप से बच नहीं पाया। बेचारे आगंतुक भी सेठ का मनोविज्ञान समझते हैं। अतः न चाहते हुए भी सच्ची-झूठी हाँ में हाँ मिलाते सेठ की मुस्कान में अपनी नकली मुस्कान मिलाते, जल्दी ही छुटकारा पाने के लिए कोई न कोई बहाना खोजते; पर सेठ की पकड़ जोंक से कम थोड़े ही थी, जो आसानी से छूट जाये। सेठ लक्ष्मीलाल चाय-नाश्ता के बहाने रहा-सहा वैभव भी दिखाकर ही दम लेता। ऐसा करते सेठ शरीर से भले थक जाए, पर मन से कभी नहीं थकता: क्योंकि इसमें उसे आनन्द जो आता है। सेठ जिसे अपना सौभाग्य समझे बैठा है, भाग्योदय माने बैठा है; वही

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