Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ 46 बारह अब पछताये क्या होत है जब ज्ञानेश ने कहा - "मोहन ! तुम अपनी भूल मानो या न मानो, पर सच यह है कि धनश्री और रूपश्री जैसी सर्वगुणसम्पन्न बेटियों को और भोली-भाली ममता की मूर्ति उनकी माँ को इस दुःखद और दयनीय स्थिति में पहुँचाने में तथा इकलौते बेटे को पोलियों से पीड़ित और अनाथ बनाने में सबसे अधिक दोष यदि किसी का है तो वह तुम्हारा ही है। जब आमद कम और खर्च अधिक होता है तब यही हालत होती है, तुम्हें अपना तनाव कम करने के लिए शराब के नशे में डूबे रहने के बजाय आमदनी बढ़ाने के साधन सोचने चाहिए थे, उसके बदले तुमने मद्यपान की आदत डालकर एक और नया खर्च बढ़ा लिया। इस नशे ने तुम्हें बदनाम तो किया ही, बीमार भी कर दिया। जरा सोचो! नशा परेशानियों से बचने का उपाय है या परेशानियाँ बढ़ाने का कारण है? लोग शराब सहारा पाने के लिए पीते हैं; परन्तु यदि शराब सहारा दे सकती होती तो व्यक्ति उसे पीकर लड़खड़ाता क्यों ? अर्द्धविक्षिप्त क्यों हो जाते हैं। जो व्यक्ति अपनी पत्नी और सन्तान का सही ढंग से भरण-पोषण, देख-रेख और संरक्षण जैसे अनिवार्य कर्त्तव्य का पालन नहीं कर सकता, उसे शादी-ब्याह रचाकर पत्नी और सन्तान के सुख की कल्पना करने का भी अधिकार नहीं है। तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि अधिकार और कर्त्तव्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। कर्त्तव्य भूलते ही अधिकार भी स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं।" तुमने दुर्व्यसनों में पड़कर अपने परिवार को जिस दु:ख के सागर में डुबो दिया है, उस दुःख को तुम्हारा यह रोना-धोना, दुःखी होना, अब पछताये क्या होत है जब पश्चाताप करना, कम नहीं कर सकता।" ज्ञानेश की बातें सुनकर मोहन भावुक हो उठा, स्वयं को संभाल न सका। वह औरतों की तरह फूट-फूटकर रोने लगा - पश्चाताप के आँसू बहाते हुए बोला "ऐसा कौन-सा पाप है जो मैंने नहीं किया।" अपनी कमाई के साथ पिता की करोडों की सम्पत्ति भी मैंने गमा दी। यह बात सच है कि खोटे/बेईमानी के धंधों से जो पैसा आता है, वह मूलधन को भी साथ लेकर खोटे रास्ते से ही चला जाता है। कहा भी है - अन्यायोपार्जितं वित्तं, दसवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते एकादशे वर्षे समूलं हि विनश्यति ।। अन्याय से कमाया धन अधिकतम दश वर्ष तक ठहरता है, पश्चात् मूल सहित नष्ट हो जाता है। जब कुछ नहीं बचा तो मुझे साधारण क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी; मेरे दुर्व्यसनों के कारण ही मेरे पिता हृदयाघात से परलोक सिधारे । माँ की ममता को मैंने कुचला, उसके वैधव्य का कारण मैं बना । पत्नी, पुत्रियों और पुत्र के जीवन के साथ खिलवाड़ मैंने किया। एक बात हो तो कहँ, क्या-क्या गिनाऊँ ? सचमुच मैं किसी को मँह दिखाने लायक ही नहीं रहा; अत: अब मुझे जीने का भी अधिकार नहीं रहा।" ज्ञानेश द्वारा धैर्य बंधाने पर मोहन चुप तो हो गया, पर उसके मन के विकल्प नहीं रुके, अन्तर्जल्प चलता ही रहा - "हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? मुझे तो चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए; मेरी प्राणों से प्यारी बेटियों का दुःख मुझसे देखा नहीं जाता। उनके दुःखों को अनदेखा करने के लिए, भूलने के लिए ज्यों-ज्यों मैं नशे में डूबने की कोशिश करता हूँ, त्यों-त्यों ये दुःख बढ़ते ही जाते हैं। अब तो नशे में डूबे रहने पर भी चारों ओर ये ही दृश्य दिखाई देते हैं। मरण के सिवाय अन्य कोई उपाय ही शेष नहीं रहा;

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