Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ नौ ये तो सोचा ही नहीं जीवन यात्रा का सारा रास्ता रुक गया। अब भविष्य में भी किसकी आशा करूँ ? आखिर संतान भी तो इन्हीं की है ? ___ हाय ! मेरे तो तीनों पन ही बिगड़ गये। मैं बर्बाद हो गई। हाय!....प्रभो ! नारी जीवन की यह कैसी विडम्बना है ? पढ़े-लिखे होने पर भी इस तरह दुर्व्यसन में पड़ने का कारण इनका यह खोटा व्यवसाय ही है, न ये रिस्की धंधा करते और न नशे में पड़ते । अब यदि मेरी कूख से पुत्र पैदा हुआ तो मैं ऐसे खोटे-धंधों की तो उस पर परछाईं भी नहीं पड़ने दूंगी।.......” । इस तरह सोचते-विचारते वह अचेत-सी हो गई, सो गई। बीचबीच में कुछ सचेत होती तो उसे फिर वही घबड़ाहट शुरू हो जाती और बड़बड़ाने लगती - "हे भगवान ! ऐसे अनायास होनेवाले उतारचढ़ाव के धंधों के चक्कर में कोई शत्रु भी न पड़े, जिनमें लाभ होने पर भी चारित्रिक पतन और हानि होने पर भी गम भुलाने के लिए वही नशीली वस्तुओं का सहारा । इतने पढ़े-लिखे हैं; कोई ऐसा धंधा देखना था, जिसमें आकुलता न होती; नींद हराम न होती, नशे का सहारा न लेना पड़ता । अरे ! अच्छे व्यक्तित्व की तो पहचान ही यह है कि वह अपना स्वतंत्र निर्णय ले। लीक पर चलने का तो अर्थ ही यह होता है कि स्वयं निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। मैं उन्हें कहूँगी बंद करो यह सब खोटे धंधे और कोई अच्छा व्यापार करो। पैसा बहुत कुछ हो सकता है, पर सब कुछ नहीं। अतः आँख बन्द कर पैसे के पीछे पड़ना बुद्धिमानी नहीं है। पुण्य से प्राप्त पैसे का सदुपयोग करने का विवेक की जरूरत है।" सही साध्य हेतु सही साधन आवश्यक ज्ञानेश ने मित्र के नाते धनेश को जब शेयर बाजार के धंधे की उलझनों में न पड़ने की सलाह दी तब तो धनेश ने उसकी सलाह को लापरवाही से सुनी-अनसुनी करके उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया; परन्तु जब वह शेयर भावों में अचानक होनेवाले उतार-चढ़ाव के झटकों को नहीं झेल पाया तो करोड़ों की कल्पनाओं में दौड़ लगाने वाला कुछ ही दिनों में रोड़ पर आकर खड़ा हो गया, घाटे में हुए ऋण से उऋण होने के लिए सब फैक्ट्रियाँ और कम्पनियाँ मिट्टी के मोल बेचने को बाध्य हो गया, तब उसे ज्ञानेश द्वारा दी गई सलाह की एक-एक बात याद आने लगी। ज्ञानेश ने कहा था - "पुण्य-पाप का खेल भी बड़ा विचित्र होता है। पुण्य-पाप के फल के अनुसार जीवन के खेल के पांसे पलटते ही रहते हैं। जहाँ एक ओर पापों के फल में दुर्भाग्य का दैत्य धक्का देकर ओंधे मुंह गिरा देता है, वहीं दूसरी ओर पुण्य के फल में सौभाग्य स्वयं साकार रूप धर कर संभाल भी लेता है; परन्तु यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे आमंत्रण दें, पुण्य को या पाप को ? यदि हम पुण्य को आमंत्रण देना चाहते हैं तो हमें सत्कर्म ही करने होंगे। यदि हमारे द्वारा दूसरों को किसी भी कारण कोई भी पीड़ा पहुँचती है तो इससे बड़ा दुनिया में अन्य कोई दुष्कर्म नहीं है और दूसरे जीवों की रक्षा करने से, उनका भला करने से बढ़कर कोई पुण्य का कार्य नहीं है। एतदर्थ महाकवि तुलसीदासजी की इस बात को याद रखना होगा - 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।"

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