Book Title: Yadi Chuk Gaye To Author(s): Mahavir Prasad Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ १२ यदि चूक गये तो करके दर्शनमोह कर्म का तीव्र बंध किया था । इसकारण उसने एक कोड़ाकोड़ी सागर तक चतुर्गति के दुःख भोगे । कविवर पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला की दूसरी ढाल में संसार में जन्म-मरण के कारणों की चर्चा करते हुए स्पष्ट कहा है कि - "ऐसे मिथ्या दृग ज्ञान चरण, भव भ्रमत भरत दुःख जनम-मरन । तातैं इनको तजिए सुजान, सुन तिनि संक्षेप कहूँ बखान ।। आगे उन्होंने उन मिथ्या दर्शन - ज्ञान चारित्र का विशद वर्णन भी किया है, जो मूलतः पठनीय है। पुरुरवा भील और मारीचि के भव में हुई भूलों के कारण भगवान महावीर के जीव ने क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे। साठ हजार भव तो उसने आकड़ा (अकौआ पेड़) के रखे। अनेक बार नरकों में गया। निगोद में भी गया; क्योंकि त्रस पर्याय का काल तो मात्र दो हजार सागर का ही है। जबकि वह तो मारीचि के भव से महावीर होने तक एक कोड़ाकोड़ी सागर संसार में भ्रमण करता रहा। अतः उसे निगोद में एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण के दुःख भोगना ही पड़े। भली होनहार से वह तो लगभग २६०० वर्ष पूर्व तीर्थंकर महावीर के रूप में आत्म साधना के अपूर्व पुरुषार्थ से मुक्त हो ही गये। हम तो अभी भी उसी संसार समुद्र में गोते खा रहे हैं। इन सब बातों का विचार करके धर्म सम्बन्धी समस्त दुराग्रह छोड़कर इस मानव जन्म को सार्थक बनाने का सम्यक् पुरुषार्थ करना योग्य है। दुःखद दुराग्रह मोह-मद, राग-द्वेष दुःख खान । तातें इनको त्यागकर करो तत्त्व रस पान ।। करो तत्वरस पान, जिनागम को मत भूलो। समझो सत्यस्वरूप सुखद, संयोगों में मत फूलो ।। निज में करो निवास ज्ञान-चेतना है सुखद । कहें जिनेश्वरदेव, करम-चेतना है दुःखद ।। - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल (७) आत्मकथ्य कर्मफल भुगतहिं जाय टरे । पार्श्वनाथ तीर्थंकर ऊपर कमठ उपसर्ग करे । एक वर्ष तक आदितीर्थंकर बिन आहार रहे ।। रामचन्द्र चौदह वर्षों तक वन-वन जाय फिरे । पाया अवसर चूक गये तो करतल मलत रहे ।। करम फल भुगतहिं जाय टरे ।। १ ।। 'जैसी करनी वैसी भरनी' चतुः गति जाय भ्रमे । आर्त्तध्यान में अटक गये तो पशुगति जाय परे ।। पाण्डव जन को देखो उनने कैसे कष्ट सहे । भूलचूक जाने-अनजाने करनी यथा करे ।। करम फल भुगतहिं जाय टरे ।।२ ।। कृष्ण सरिखे जगत मान्य जन परहित जिये-मरे । जनम जेल में शरण ग्वालघर बृज में जाय रहे ।। जिनके राज-काज जीवन में दूध की नदी बहे । अन्त समय में वही कृष्णजी नीर बूँद तरसे ॥। करम फल भुगतहिं जाय टरे ।। ३ ।। जरत कुंवर जिसकी रक्षाहित, वन-वन जाय फिरे । अन्त समय में वही मौत के कारण आय बने । ऐसी दशा देखकर प्राणी, क्यों नहिं स्वहित करे । विषयानंद में रमत रहे तो नरकनि जाय परे ।। करम फल भुगतहिं जाय टरे ॥४ ॥ १. टरे अर्थात् बने ।Page Navigation
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