Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ शलाका पुरुष भाग-२से ११६ यदिचूक गये तो सकता है? अतः अन्य मनीषियों द्वारा प्रतिपादित विविध मूलगुण भी इन्हीं में अन्तर्गर्भित हैं और आगे भी होते रहेंगे। ___ यह तो जैनों की परम्परागत चली आयी कुल की मर्यादा है कि किसी भी जैनकुल में कभी भी मद्य-मांस-मधु एवं पंच-उदुम्बर फलों का सेवन नहीं होता; फिर भी यह जो अष्ट मूलगुण धारण करने-कराने का उपदेश दिया गया है, उसका मूल कारण यह है कि परम्परागत चली आई वह सुरीति आगे भी अखण्डितरूप से चलती रहे। भूल से भी कभी कोई इस मर्यादा का उल्लंघन न करे। इस भावना से ही इनका प्रतिपादन होता रहा है। आज तक जो जैनों में मद्य-मांस-मधु व अभक्ष्य-भक्षण नहीं है, वह शास्त्रों के इन्हीं उपदेशों का सुपरिणाम है। यदि यह उपदेश इतने सशक्तरूप में जिनवाणी में न होता तो निश्चित ही जैन समाज में इन दुर्व्यसनों का कभी न कभी, कहीं न कहीं प्रवेश अवश्य हो गया होता। मानते हैं, वे इन्हें खाते-पीते हुए भी समाज और परिवार से मुँह छिपाते हैं, शर्म महसूस करते हैं, खेद प्रगट करते हैं, वे स्वयं अपराध बोध अनुभव करते हैं; अतः उन्हें तो फिर भी सुलटने के अवसर हैं; पर जो लोग इसे सभ्यता और बड़प्पन की वस्तु मान बैठे हैं; उनकी स्थिति चिंतनीय रहेगी। ऐसे लोगों को मद्य-मांसादि के सेवन से होनेवाली हानियों का यथार्थ ज्ञान हो तथा उनके हृदय में करुणा की भावना जगे, उनमें मानवीय गुणों का विकास हो, वे सदाचारी बने; एतदर्थ भी इसकी सतत्चर्चा आवश्यक है। -- १. सभी प्रकार की मादक वस्तुओं का त्याग, २. रात्रि में आहार का त्याग, ३. कंदमूल का त्याग, ४. बिना छने जलपान का त्याग, ५. अपेय एवं अखाद्य पदार्थों का त्याग, ६. जुआ आदि सप्त व्यसनों का त्याग, ७. द्विदल आदि अभक्ष्य-भक्षण का त्याग, ८. सामान्य स्थिति में प्रतिदिन देवदर्शन और सुबह-शाम स्वाध्याय करने का नियम, ९. वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अहिंसामय धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखना। ये सब जैनधर्म के प्रारंभ के आचार-विचार हैं। इनके बिना मोक्षमार्ग में आने की पात्रता भी संभव नहीं है। भले ही अबतक जैनकुल में परम्परागत कोई मांस-मद्य खाता-पीता ना हो; फिर भी उसके खतरे से सावधान करने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य, खाद्यअखाद्य, पेय-अपेय की चर्चा तो सदैव अविरलरूप से चलती ही रहना चाहिए। चर्चा से सम्पूर्ण वातावरण प्रभावित होता है। जो दुर्भाग्यवश इन दुर्व्यसनों में फंस गये हैं, उन्हें उससे उबरने का मार्ग मिल जाता है और जो अब तक बचे हैं वे भविष्य के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता के प्रभाव से एवं पंचसितारा (फाइव स्टार) होटलों के प्रताप से धनिक नवयुवकों में तो मद्य एवं मांस के सेवन की शुरूआत हो ही रही है। ऐसी स्थिति में उन्हें सदाचारी जीवन जीने का मार्गदर्शन देने की एवं ऐसा ही अहिंसक तथा सदाचारी वातावरण बनाने की महत्ती आवश्यकता है। मद्य कामोत्तेजक होती है, इसे पीनेवाला कामासक्त हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह अन्याय-अनीति रूप क्रियायें करने लगता है। इससे उसे संसार में सदा संक्लेश और दुःख ही दुःख उत्पन्न होता है। मद्यपान करनेवाले की प्रतिष्ठा तो धूल-धूसरित होती ही है, स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मद्यपायी का कोई विश्वास नहीं करता, वह कोई बड़े काम नहीं कर पाता। मद्यपान से मनुष्य की क्रान्ति, कीर्ति, बुद्धि और सम्पत्ति क्षणमात्र में विनाश को प्राप्त हो जाती है। मद्य मन को मोहित करती है, मोहित मनवाला धर्म को भूल जाता है अतः मद्यपान हर दृष्टि से त्याज्य हैं। जो व्यक्ति इन अखाद्य-भोजन और अपेय-पान को हृदय से बुरा (५९)

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