Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ १६४ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-२से के आलम्बन के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं चाहिए। यहाँ तक कि मनवचन-काय भी, जो कि आत्मा के एकक्षेत्रावगाही हैं, उन तीनों योगों से भी काम लेना बन्द करके जब आत्मा अपने स्वरूप में ही स्थिर हो जाता है, उसे अध्यात्म में आत्मध्यान या निश्चय धर्मध्यान संज्ञा प्राप्त है। पात्र बनते हैं। लोग दोनों ही परिस्थितियों में जीवन भर जगत के जीवों के साथ और अपने-आपके साथ संघर्ष करते-करते ही मर जाते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाते, कषाय-चक्र से बाहर नहीं निकल पाते। - - -- तत्त्वज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है, अज्ञानी न तो शान्ति से जी ही सकता है और न समाधि पूर्वक देह ही त्याग सकता है। अतः हमें शान्ति से जीने और समता भाव से मरने के लिए आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा। एतदर्थ मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत कतिपय प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। ध्यान दें! भाग्य से अधिक और समय से पहले, किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और न तो हम किसी के सुख-दुःख के दाता हैं, न भले-बुरे के कर्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है और न हमारा भलाबुरा कर सकता है। अतः किसी वस्तु को पाने की आकुलता न करें और किसी से राग-द्वेष न करें। इनकी वर्तमान क्षयोपशमज्ञान पर्याय में समझ की ऐसी ही योग्यता है, सहनशीलता की इतनी ही शक्ति है, इनकी कषाय परिणति की ऐसी ही विचित्र योग्यता है। इसकारण खोटी प्रवृत्ति करने के लिये ये बेचारे विवश हैं; क्योंकि इनके औदयिक व क्षायोपशमिक भाव ही इस जाति के हैं। अतः इस समय ये बेचारे न कुछ सीख सकते हैं, न कुछ समझ ही सकते हैं और न इनके वर्तमान विभावस्वभाव में किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना ही है; तो फिर हम इन पर दया करने के बजाय क्रोध क्यों करें? सचमुच ये तो दया के पात्र हैं। हम इनसे क्यों उलझते हैं? यदि हम भी इन्हीं की भाँति उलझते हैं तो फिर हमारे स्वाध्याय का लाभ ही क्या? कदाचित् कषायांश वश उलझ भी जायें तो यथाशीघ्र-सुलझने की ओर प्रयासरत हो जाना चाहिए। वस्तुतः यही सुखी जीवन का रहस्य है। -- -- __ पर्याय की पामरता के नाश का उपाय पर्याय की पामरता का चिन्तन नहीं, स्वभाव के सामर्थ्य का श्रद्धान है, ज्ञान है। स्व-स्वभाव के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान का नाम ही धर्म है।। राजा सेवक पर कितना भी प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य से अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे। फिर भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते। -- अधिकांश व्यक्ति तो ऐसे होते हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराकर, जीवन से निराश होकर जल्दी ही भगवान को प्यारे हो जाना चाहते हैं, दुःखद वातावरण से छुटकारा पाने के लिए समय से पहले ही मर जाना चाहते हैं। सौभाग्य से यदि अनुकूलतायें मिल गईं तो आयु से भी अधिक जीने की निष्फल कामना करते-करते अति संक्लेशभाव से मरकर कुगति के अरे भाई! तुझे आत्मा के दर्शन करना तो आता नहीं और आत्मा के स्वरूप को देखने-जानने के हेतु दर्पण के समान जो जिनेन्द्रदेव हैं, उनके दर्शन तू करता नहीं तो तुझे आत्मदर्शन कैसे होगा? जिस घर में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरु के दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओं को आदरपूर्वक आहारदान दिया जाता है; वह घर धन्य हैं। धर्म तो आत्मा में प्रकट होता है, तिथि में नहीं; किन्तु जिस तिथि में

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