Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 65
________________ १२८ यदिचूक गये तो वीतरागता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते हैं - जैनदर्शन का यह परम सत्य ही इस महामंत्र में प्रस्फुटित हुआ है। शलाका पुरुष भाग-२से १२९ भ्रान्ति होना स्वाभाविक है कि यह समृद्धि इस मंत्र के प्रसाद से हुई है। -- अपना हित चाहने वाले बुद्धिमान जीवों को विषयों की वासना तथा पापभाव छोड़कर मोक्ष सुख हेतु धर्म का सेवन करने की भावना होती है। तीर्थंकर का योग प्राप्त होने पर भी हृदय से विषयभोगों की शल्य नहीं छूटी तो त्रिखण्डाधिपति भी भयंकर दुर्गति को प्राप्त करते हैं इसलिये हे जीव! यदि तुझे धर्म का सुअवसर प्राप्त हुआ है तो अब तू विषयों में मत अटक ! आत्मा के वीतरागी सुख का विश्वास करके उसकी साधना कर! सुखरूप से जीव स्वयं अपने आप ही परिणमता है, क्योंकि निराकुल सुख जीव का स्वभाव है। अरे! यह पुण्य का ठाठ भी ओस बिन्दु और उल्कापात के समान क्षण भंगुर है। जिसप्रकार ओस बिन्दुओं पर महल नहीं बनाया जा सकता; उसीप्रकार पुण्य वैभव द्वारा कहीं आत्मशान्ति की साधना नहीं हो सकती। यह महामंत्र भौतिक मंत्र नहीं है, आध्यात्मिक महामंत्र है; क्योंकि उसमें आध्यात्मिक पराकाष्ठा को प्राप्त पंच परमेष्ठियों को स्मरण किया गया है; अतः इसकी महानता भी भौतिक उपलब्धियों में नहीं आध्यात्मिक चरमोपलब्धि में है। मोह-राग-द्वेष के नाश करने के लिए यह णमोकार महामंत्र परमौषधि है, विषय वासनारूपी नाग के विष को उतारने के लिए यह नागदमनी जड़ी-बूटी है, भव-सागर से पार उतारने के लिए यह अद्भुत अपूर्व जहाज है। निजात्मा के ध्यान से च्युत होने पर एकमात्र शरणभूत यही महामंत्र है। आत्मा के योग व उपयोग के स्वभाव सन्मुख हुए बिना, तत्त्वज्ञान हुए बिना, केवल मंत्रोच्चारण अधिक कार्यकारी नहीं होता; अतः णमोकार मंत्र के माध्यम से पंच-परमेष्ठी के स्वरूप का अवलम्बन लेकर जो व्यक्ति अपने आत्मा में अपना उपयोग स्थिर करता है; वही इस मंत्र के असली लाभ से लाभान्वित होता है। इस महामंत्र के स्मरण से समस्त लौकिक कामनाओं, सुख-समृद्धियों की पूर्ति होती है तथा परलोक से स्वर्गादि की सुख-सम्पदायें प्राप्त होती हैं; किन्तु वस्तुतः वह लौकिक विषय-कषाय जनित कामनाओं की पूर्ति का मंत्र नहीं, बल्कि उन्हें समाप्त करनेवाला महामंत्र है। वस्तुतः देखा जाय तो इस महामंत्र के विवेकी आराधकों के लौकिक कामनायें होती ही नहीं हैं, होना भी नहीं चाहिए; क्योंकि इसमें जिन्हें स्मरण व नमन किया गया है, वे सभी स्वयं वीतरागी; महान आत्मायें हैं, वे न किसी का भला-बुरा करते हैं, न कर सकते हैं। मंत्र की आराधना के काल में संयोगवशात् जब किसी को लौकिक सुख-सामग्री या समृद्धि प्राप्त हो जाती है तो दोनों का समकाल होने से ऐसी सम्यक्त्व होने पर भी चारित्र अभी बहुत अल्प है, निर्जरा अभी अति अल्प है, जब तक चारित्र की पूर्णता नहीं होगी तब तक मुक्ति नहीं होगी। -- -- इस संसार में प्रत्येक जीव अपने-अपने भावों का ही फल भोगता है। चाहे जैसे इन्द्रिय विषय हों; पर उनके सेवन से सुख नहीं मिलता। बल्कि उनसे तो मात्र पाप का ही बन्ध होता है। प्रथम तो निगोद से निकलना ही भारी दुर्लभ है, फिर इस मनुष्य पर्याय का पाना, अच्छी बुद्धि, कषायों की मंदता, जिनवाणी का समागम, स्वास्थ्य की अनुकूलता आदि एक अत्यन्त दुर्लभ है। भले ही किसी का क्षयोपशम कम हो या अधिक हो, जैसा भी कम

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