Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ १२१ १२० यदिचूक गये तो भटकते-भटकते थकान महसूस होने लगी हो तो पर-दया के साथ-साथ स्वदया भी करनी ही होगी। जो स्वयं दुःखरूप हो वह दया-पुण्यरूप तो होती है, पर उस दया से धर्म नहीं हो सकता। धर्म तो सुखस्वरूप है, वीतरागभावरूप है, जबकि दयाभाव दुःखरूप है, रागरूप है। यद्यपि पर दया करना भी प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है, पर उसे धर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। 'दया धर्म का मूल है' इस उक्ति का भी यही अर्थ है कि दयाधर्म नहीं, धर्म का कारण है, धर्म के पहले दया भाव होता ही है। शलाका पुरुष भाग-२से विद्याध्ययन में सफलता पाने हेतु विद्यार्थी के पाँच लक्षण बताये हैं - कौए के समान सक्रिय चेष्टा, बगुले की तरह ध्यान में एकाग्रता, कुत्ते की भाँति कच्ची नींद, भूख से कम खाना और गृह अर्थात् माता-पिता से मोह-ममत्व का त्याग होना जरूरी है, अन्यथा विद्यार्थी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता। जब तक औदयिकभाव रहता है, तब तक आत्मा को संसार भ्रमण करना पड़ता है और औदयिकभाव तबतक रहते हैं जब तक कर्म रहते हैं और उनके कारण मिथ्यात्व आदि भाव रहते हैं; अतः मिथ्यात्वादि ही संसार के मूल हैं। मिथ्यात्व को स्थूल नष्ट किए बिना अन्य कारणों का अभाव हो ही नहीं सकता। यही सब पापों का बाप है। जिन पदार्थों के खाने से त्रस जीवों के घात होता हो या बहुत स्थावर जीवों का घात होता हो तथा जो पदार्थ भले पुरुषों के सेवन करने योग्य न हो या नशाकारक अथवा अस्वास्थ्य कर हों, वे सब अभक्ष्य हैं। इन अभक्ष्यों को पाँच भागों में बाँटा जाता है। १. त्रसघात, २. बहुघात, ३. अनुपसेव्य, ४. नशाकारक, ५. अनिष्ट । जिनागम में २२ अभक्ष्य पदार्थों को विशेष नामोल्लेखपूर्वक त्यागने की प्रेरणा दी गई है; क्योंकि उनके सेवन से अनंत त्रसजीवों की हिंसा है। चना, उड़द, मूंग, मसूर, अरहर आदि सभी प्रकार के दो दल वाले अनाजों को दही, छाछ (मट्ठा) में मिलाकर बनाये गये कड़ी, रायता, दही बड़ा आदि को खाना द्विदल अभक्ष्य है। दो दल वाले सभी अनाज भक्ष्य हैं, खाने योग्य हैं और मर्यादित दही व छाछ भी भक्ष्य है, तथापि इनको मिलाकर खाने से यह अभक्ष्य हो जाते हैं, क्योंकि दालों और दही छाछ के मिश्रण से बने पदार्थों का लार से संयोग होने पर तत्काल त्रसजीव पैदा हो जाते हैं। अतः इनके खाने में मांस का आंशिक दोष (अतिचार) है। जैनदर्शन में मिथ्यात्व को सर्वाधिक अहितकारी और सम्यक्त्व को परम हितकारी बताया है। तीनों लोकों व तीनों कालों में प्राणियों को सम्यग्दर्शन के समान कोई कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान कोई अकल्याणकारी नहीं है। इस जीव का तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान कोई आत्मबन्धु नहीं है और मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई दुःखदायक शत्रु नहीं है; इसलिए मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्व को अंगीकार करो। यही आत्मा को कुमार्ग से बचानेवाला है। मिथ्यात्वभाव से ही सब पापों का जन्म होता है; अतः इसे सब पापों का बाप कहा जाता है और सम्यक्त्व ही धर्म का मर्म है, धर्म का मूल है, इसकारण इसे मोक्ष का मूल कहा जाता है। 'काकचेष्टा वकोध्यानं, श्वाननिद्रातथैव च । अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम् ।। मिथ्यात्व का अर्थ है - आत्मा छह द्रव्य, साततत्त्व और सच्चे देवशास्त्र-गुरु के संबंध में उल्टी समझ, विपरीत मान्यता और सम्यक्त्व का अर्थ है इनके संबंध में सच्ची समझ, यथार्थ मान्यता। (६१)

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