Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 60
________________ ११८ यदिचूक गये तो ११९ यह जीव दर्शन मोह और चारित्र मोह के कारण मन-वचन-काय की विपरीत प्रवृत्ति से कर्मों को बाँधकर उनसे प्रेरित हुआ दुखद संसार में भव में भ्रमण करता हुआ दुःख भोगता है। दैवयोग से कदाचित् काललब्धि एवं भली होनहार से दुर्लभ मानव पर्याय पालता है, वहाँ भी मोहित हुआ पर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता हुआ दुर्व्यसन सेवन करता है। शलाका पुरुष भाग-२से पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों को देखकर तथा सबल पशुओं द्वारा निर्बल पशुओं को जीवित निगलते देखकर, मछलियों, मुर्गे-मुर्गियों व भेड़-बकरियों को धीवरों व कसाइयों के हाथों निर्दयता पूर्ण व्यवहार करते देखकर जो हृदय में करुणा का स्रोत प्रवाहित होता है, दिल दहज जाता है, मन रो पड़ता है, इसतरह से उन दुःखी प्राणियों की सहायता करने की तीव्र भावना होती है, उस भावना को सर्वानुकम्पा कहते हैं। सर्वानुकम्पा से सामान्य-पुण्यबन्ध होता है और मिश्रानुकम्पा व धर्मानुकम्पा सातिशय (विशेष) पुण्यबन्ध की कारण है। -- दया दो प्रकार की है - १. स्वदया और २. परदया। लोग परदया को ही दया जानते हैं, उनकी दृष्टि स्वदया की ओर जाती ही नहीं, जबकि परदया से पुण्य होता है और स्वदया से धर्म । ___ भूख से, प्यास से अथवा अन्य किसी भी दुःख से दुःखी जीवों को देखकर जो स्वयं दुःखी होकर उनके दुःखों को दूर करना चाहता है, उसके उस मिश्रित शुभभाव को सामान्यतया दया या अनुकम्पा कहते हैं। सर्व प्राणियों के प्रति उपकार बुद्धि रखना, मैत्रीभाव रखना, द्वेषबुद्धि छोड़कर मध्यस्थभाव रखना भी दया है, अनुकम्पा है; किन्तु यह भी परदया ही है। दया या अनुकम्पा के शास्त्रों में तीन भेद किए हैं - 'अनुकम्पा-त्रिप्रकारा-धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पाचेति।' परदया तीन प्रकार की है - प्रथम - सकल संयमी मुनिराजों के प्रति जो दयाभाव आता है, वह धर्मानुकम्पा है। दूसरी-देशव्रती संयतासंयत नैष्ठिक श्रावकों के प्रति उत्पन्न हुए अनुकम्पा के भावों को मिश्रानुकम्पा कहते हैं और तीसरी प्राणीमात्र पर जो दयाभाव होता है, उसे सर्वानुकम्पा कहते हैं। सर्वानुकम्पा को विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि - गूंगे-बहरे, लूले-लंगड़े, अंधे-कोड़ी, दीन-निर्धन, रोगी और घायल व्यक्तियों को देखकर, विधवा, अनाथ, असहाय, अबला और सताई हुई नारियों को देखकर, लुटे-पिटे, चीत्कार करते, रोते-बिलखते आर्तनाद करते, सुरक्षा की भीख माँगते मानवों को देखकर, भूखे-प्यासे, तड़फते, भयाक्रान्त पशु- जिनके हृदय में जीवों के प्रति दयाभाव नहीं है, उनके हृदयों में धर्म कैसे ठहर सकता है। यह दयाभाव धर्मरूप वृक्ष का मूल है। इसका सर्वव्रतों में प्रथम स्थान है। स्व-दया अर्थात् अपने दुःख देखकर संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर, इनमें भेदज्ञान करके कांटे की तरह चुभनेवाली माया-मिथ्यानिदान, त्रिशल्यों का त्याग कर निष्कषाय हो जाना 'स्वदया' है। ___इस सबमें स्व-अनुकम्पा ही सर्वश्रेष्ठ अनुकम्पा है, क्योंकि पर-अनुकम्पा तो अज्ञानदशा में भी अनंतबार की, पर स्वअनुकम्पा हमने आज तक नहीं की, अन्यथा आज हम इस दुःखद स्थिति में नहीं होते; क्योंकि स्वदया निर्बन्ध दशा प्रगट करने की कारण है। ध्यान रहे, यह स्व-अनुकम्पा मिथ्यात्व शल्य निकले बिना उत्पन्न ही नहीं होती; क्योंकि मिथ्यात्व से आत्मा में पर-पदार्थों के प्रति इष्ट-अनिष्ट रूप मिथ्या कल्पनायें उत्पन्न होती हैं। मिथ्या-कल्पनाओं से राग-द्वेषादि भावों से आत्मा कर्मों से बंधता है और कर्मबन्धन से संसार परिभ्रमण होता है। स्व-अनुकम्पा के अभाव में ही यह जीव अनादि से संसार-सागर में गोते खा रहा है। यदि हमें वस्तुतः संसार के सुख दुःखरूप लगे हों, संसार में (६०)

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