Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 52
________________ १०२ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-२ से ~ अजितनाथ स्तवन अनन्त धर्ममय मूल वस्तु है, अनेकान्त सिद्धान्त महान । वाचक-वाच्य नियोग के कारण, स्याद्वाद से किया बखान ।। आचार अहिंसामय अपनाकर, निर्भय किए मृत्यु भयवान । परिग्रह संग्रह पाप बताकर, अजित किया जग का कल्याण ।। अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक प्रत्येक द्रव्य प्रति समय पलटेगा, एक समय भी पलटे बिना रहेगा नहीं - यह बात भी नित्य है; क्योंकि यदि यह बात अनित्य होती तो फिर द्रव्य कभी पलटता और कभी नहीं पलटता, जबकि ऐसा नहीं होता है। द्रव्य नित्य पलटता है। जब हम - यह कहते हैं पर्याय नित्य पलटती है तो हमें पलटने के साथ नित्यता का वैर-विरोध सा लगता है, जबकि इसमें वस्तुतः वैर-विरोध नहीं है। जैसा वस्तु का स्वभाव कभी नहीं पलटना है, वैसा ही वस्तु का स्वभाव 'प्रति समय पलटना' भी है। वस्तु का द्रव्यस्वभाव कभी नहीं पलटने वाला है और वस्तु का पर्यायस्वभाव प्रतिसमय पलटने वाला है। ये दोनों ही वस्तु के स्वभाव हैं। ऐसा नहीं है कि द्रव्यस्वभाव द्रव्य का स्वभाव है और पर्याय स्वभाव पर्याय का । ये दोनों ही वस्तु के नित्य स्वभाव हैं। जीव अनादिकाल से प्रतिसमय पलट रहा है एवं अनन्तकाल तक पलटेगा, फिर भी वह पलटकर कभी अजीव नहीं होगा। एक द्रव्य कभी दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता है - इसका नाम है कभी नहीं पलटना एवं अपने में निरन्तर परिवर्तन होने का नाम पलटना है। भगवान आत्मा में अनन्तगुण हैं व असंख्य प्रदेश हैं और उन अनंतगुणों में से कभी भी एक गुण कम नहीं होगा और असंख्य प्रदेशों में से कभी भी एक प्रदेश कम नहीं होगा। जिसप्रकार यह नित्यस्वभाव हैं; उसीप्रकार प्रत्येक गुण में प्रतिसमय परिणमन होगा - यह भी नित्यस्वभाव ही है। मात्र 'नहीं पलटना' ही नित्यस्वभाव नहीं है; अपितु 'प्रति समय पलटना' भी नित्यस्वभाव है। मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ने के लिए सर्वप्रथम मद्य-मांसमधु का सेवन न करना, सात व्यसनों से सदा दूर रहना, पाँचों पापों का स्थूल त्याग होना, रात्रि में भोजन न करना, बिना छने जल का उपयोग न करना, प्राणीमात्र के प्रति करुणाभाव होना और नित्य देवदर्शन व स्वाध्याय करना सामान्य श्रावकों का प्राथमिक कर्त्तव्य है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग निज आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होता है, तत्त्वार्थ श्रद्धान से उपलब्ध होता है तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु उस उपलब्धि में निमित्त होते हैं। एतदर्थ सामान्य श्रावक को भगवान आत्मा, सात तत्त्व एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप समझना भी अत्यन्त आवश्यक है। जिस निकृष्ट काल में पाप की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हों, मद्य-मांस का सेवन सभ्यता की श्रेणी में सम्मिलित होता जा रहा हो, शराब शरबत की तरह आतिथ्य सत्कार की वस्तु बनती जा रही हो, अंडों को शाकाहार की श्रेणी में सम्मिलित किया जा रहा हो, मछलियों को जलककड़ी की संज्ञा दी जा रही हो। ऐसी स्थिति में इन सबकी हेयता का ज्ञान कराना और इनसे होने वाली हानियों से परिचित कराना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गया है। इन सबका त्याग किये बिना धर्म पाना तो दूर, उसे पाने की पात्रता भी नहीं आती। पर्यायों से पार भगवान आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मल पर्यायों की उत्पत्ति होती है; मोक्षमार्ग का प्रारंभ होता है, मोक्ष होता है इसी पर्यायों से पार भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन, इसे निज जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और इसमें ही जमने-रमने का नाम सम्यक्चारित्र है। (५२)

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