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इन चार चतुष्टय में एक द्रव्यांश का नाम भी द्रव्य है।
यदि चूक गये तो
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जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चार को स्वीकार नहीं करेगा तो उसके मतानुसार वस्तु व्यवस्था ही नहीं बनेगी; क्योंकि द्रव्य का अर्थ है वस्तु, क्षेत्र का अर्थ है प्रदेश, काल का अर्थ है पर्याय और भाव का अर्थ है गुण । जिसमें द्रव्य-गुण- पर्याय और प्रदेश सम्मिलित हैं, उसका नाम ही वस्तु है।
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पर्यायें दो प्रकार की होती हैं- १. सहभावी, २. क्रमभावी गुणों को सहभावी पर्याय भी कहते हैं और क्रमभावी पर्याय को पर्याय कहते हैं। अतएव हम पर्याय के नाम पर सभी पर्यायों को भी दृष्टि के विषय में से निकाल नहीं सकते।
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यदि सिद्धान्त का अध्ययन करना है तो गोम्मटसार का स्वाध्याय करना और यदि अध्यात्म जानना है तो आत्मख्याति का स्वाध्याय करना। ऐसा श्री आचार्य कल्प पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने कहा है।
तत्त्वान्वेषण के काल में व्यवहार मुख्य रहता है और अनुभूति के काल में निश्चय । इसप्रकार व्यवहार की भी उपयोगिता है, व्यवहार को पूर्णरूप से उड़ाया नहीं जा सकता।
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मुख्य सो निश्चय और गौण सो व्यवहार। इन परिभाषाओं का अर्थ यह नहीं है कि - निश्चय को सदैव मुख्य रखना चाहिए और व्यवहार को सदैव गौण रखना चाहिए।
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जिसे गौण करना हो, उसका निषेध न करके उसके बारे में कुछ न कहना गौण करना है, निषेध करते ही तो वह मुख्य हो जाता है। चाहे प्रतिपादन करो या निषेध - दोनों में ही मुख्यता हो जाती है। जैसे- दृष्टि के विषयभूत आत्मा में पर्याय नहीं है - ऐसा कहकर हमने पर्यायों को गौण नहीं किया, बल्कि मुख्य कर दिया। गौण तो उस विषय में चुप रहने का नाम है।
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शलाका पुरुष भाग-१ से
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किसी घटना को या किसी व्यक्ति को बार-बार याद करने एवं किसी रूप में उसे व्यक्त करते रहने का नाम गौण करना नहीं है, बल्कि उसे अचर्चित करना ही गौणता का लक्षण है।
द्रव्य को यदि अनन्त गुणों के रूप में अलग-अलग करके देखा जायेगा तो द्रव्य नहीं दिखेगा; बल्कि अनन्त गुण दिखेंगे। जब अनन्तगुणों को अभेद करके देखेंगे तब ही द्रव्य दिखाई देगा। जब तक ज्ञान-दर्शन- चारित्र भेदरूप से दिखाई देंगे, तब तक आत्मा नहीं दिखेगा । अनन्तगुणों के अभेद का नाम द्रव्य है ।
यद्यपि द्रव्य में जो अनन्त गुण हैं, उन सभी में लक्षणभेद हैं। जैसेज्ञानगुण का काम जानना, दर्शनगुण का काम देखना, श्रद्धागुण का काम अपनापन स्थापित करना। इन सभी के लक्षण अलग-अलग होने से ये जुदे-जुदे हैं; किन्तु ये कभी भी बिखर कर अलग-अलग नहीं होते। ये गुण अनादि से अनन्तकाल तक एक दूसरे से अनुस्यूत हैं- ऐसे अनन्त गुणों के अभेद को द्रव्य कहते हैं ।
आत्मा में द्रव्यभेद, क्षेत्र भेद, काल भेद और गुणभेद तो रहेंगे, किन्तु यदि दृष्टि के विषयभूत आत्मा को प्राप्त करना है तो इन भेदों को गौण करना होगा, इन चारों के अभेदस्वरूप पर दृष्टि करनी होगी।
जैसे नदी का हमेशा बहते रहना उसकी 'नित्यता' है और उसका प्रवाहीरूप अनित्यता है। उसीप्रकार द्रव्य परिणमनशील (अनित्य) भी है और अपरिणामी (नित्य) भी है।
आत्मा में जो अनित्य नाम का धर्म है, वह भी नित्य परिणमित होता रहता है। अतः नित्य है । नित्य धर्म के समान अनित्य धर्म भी नित्य अस्तित्वमय होने से नित्य ही है। जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख आदि