Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 48
________________ यदिचूक गये तो शलाका पुरुष भाग-१से को लगाना सामान्य ध्यान है और आत्मा में मन को स्थिर करना निश्चय से धर्मध्यान है। इस धर्मध्यान में आंशिक रूप से अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति होती है, सिद्धों जैसे निराकुल सुख का अनुभव होता है। इच्छाओं का निरोध करना तप है। जब इच्छाओं का निरोध होगा, मन में कोई लौकिक भोगोपभोगों इच्छा ही नहीं उठेगी तो मन आत्मा में अपने आप लगेगा। अपने मन को आत्मा पर केन्द्रित करना - यही तपस्या का प्रयोजन है। यदि मन मरकट नियंत्रण में नहीं हुआ तो बाह्य तपस्या निरर्थक है। उससे मात्र लोगों की सहानुभूति एवं श्रद्धा तो मिल सकती है; परन्तु निराकुल सुखरूप प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। -- मन के विकल्प और इन्द्रियों के विषय कषायों को उत्पन्न करते हैं, कषायों और योगों से आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है एवं आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन से कर्मों का आस्रव और बन्ध होता है। इसप्रकार योगों का हलन-चलन और कषायें ही आस्रव-बंध के स्रोत हैं। अतः नियमित स्वाध्याय और तत्त्वचर्चा के माध्यम से निरन्तर तत्त्वाभ्यास करें तभी आस्रवबन्ध का अभाव होकर संवर-निर्जरा पूर्वक मोक्ष की सिद्धि होती धर्मध्यानी व्यक्ति जो स्वतः अनुभव करता है, उसे ही कभी उपदेश द्वारा, कभी कृति के रूप में जिज्ञासु जगत के सामने प्रस्तुत करता है। इसप्रकार कोई-कोई ज्ञानी धर्मात्मा आत्मकल्याण के साथ सहजभाव से लोकोपकार भी करते हैं, परन्तु किसी झगड़े-झंझट में नहीं उलझते । धर्मध्यान के बल से अपने कर्मों का संवर और निर्जरा करते हुए आगे बढ़ते हैं। -- हवा में रखे दीपक की हिलती हुई लौं (ज्योति) की भाँति चंचल मन में जो आत्मदर्शन होता है, वह धर्मध्यान है और काँच की पेटी में बन्द हवा रहित निश्चय दीपक ज्योति के समान निष्कम्प मन में जो आत्मदर्शन होता है वह शुक्लध्यान है। आत्मा को जानना सद्ज्ञान है और उस आत्मा को जानते रहना ही ध्यान है। अपने ज्ञान को या मन को पर पर्यायों पर से हटाकर पाँचों इन्द्रियों के विषयों, मनोविकारों और पर-पदार्थों पर से हटाकर शुद्ध आत्मा पर केन्द्रित करना ही ध्यान है। जो व्यवहार धर्मध्यान करते हैं, उनको स्वर्ग सम्पत्ति तो नियम से मिलेगी ही, कालान्तर में आत्मध्यानरूप निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान की सीढ़ी पर पहुँचकर मुक्ति भी प्राप्त होगी। अन्दर के कषाय भावों का त्याग न होने पर बाहर सब कुछ त्यागें तो भी कोई लाभ नहीं? सर्प कांचली के छोड़ देने से विषरहित नहीं होता। हम अपने आत्मारूप सूर्य की विकेन्द्रित किरणों को आत्मा पर केन्द्रित कर दें तो ४८ मिनिट में सम्पूर्ण कर्म कलंक जलकर भस्म हो जायेंगे और हमारा आत्मा कुन्दन की भाँति केवलज्ञान की चमक उत्पन्न कर परमात्मा बन जायेगा, सिद्ध हो जायेगा। वस्तु स्वरूप के निरूपण को सुनकर उसके अनुसार चलना ही वस्तुतः जिनेन्द्रवाणी से जिनेन्द्र भक्ति है। अपनी इच्छानुसार मनमाने ढंग से उछलनाकूदना, नाचना-गाना, संगीत में रस लेना जिनेन्द्रभक्ति नहीं है। वस्तुतः 'गुणेषु अनुरागः भक्तिः' इस सूत्र के अनुसार जिनेन्द्र के वीतरागसर्वज्ञता आदि गुणों की पहचानपूर्वक जिनेन्द्र के प्रति हृदय में स्नेह उमड़ना अनेक प्रकार से तत्त्वचिन्तन करना स्वाध्याय है। एक ही विचार में मन (४८)

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