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यदि चूक गये तो भक्ति भावना है। जब वह भक्ति की भावना हृदय में न समाये तो वाणी में फूट पड़े, इसमें दोष नहीं है; किन्तु गुणों को जाने-पहचाने ही नहीं, केवल देखादेखी कर्णेन्द्रिय के विषय के वशीभूत हो राग अलापता रहे - वह कोई भक्ति नहीं है।
अभेद भक्ति का स्वरूप समवसरण में अरहंत रहते हैं और लोकान्त में सिद्ध रहते हैं; अरहंतों -सिद्धों का स्वरूप जानकर अपनी आत्मा में अरहंत व सिद्धों को स्थापित कर भावपूजा करना तथा अपने आत्मा को उन जैसा ही अनुभव करना, उन जैसी वीतरागता, सर्वज्ञता, अपने आत्मा प्रगट होने की भावना भाना अभेद भक्ति है।
अपने में ही पंचपरमेष्ठी को देखना दोनों में भेद न करना, भक्त और भगवान में भेद दिखाई न देना दोनों में समानता का अनुभव अभेद भक्ति है। भेदभक्ति का स्वरूप दोनों में भेद का अनुभव करना उनकी मूर्ति बनाकर पूजना वर्तमान में स्वयं को भक्त और उन्हें भगवान के रूप में देखना, स्वयं को दीन और उन्हें दीनानाथ के रूप में देखना व्यवहार भक्ति है।
भक्तियों में सर्वश्रेष्ठ अभेद भक्ति है। यही युक्ति (पूर्ण विवेक) सहित भक्ति है, इसमें भक्ति में भावुकता को स्थान नहीं है।
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मात्र दुर्गति को जाने वाले चक्रवर्ती की पट्टरानी ही दुर्गति को जाती है; किन्तु स्वर्ग एवं मोक्ष जानेवाले चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न अर्थात् पट्टरानी को तो स्वर्ग की प्राप्ति ही होती है।
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पुरुषों के परिणाम के अनुसार ही स्त्रियों का परिणाम होता है, इसलिए पुरुष की गति के अनुसार ही वह स्त्रीरत्न भी कुछ कम लगभग उसी मार्ग में रहती है। हाँ, स्त्री पर्याय में मुक्ति संभव नहीं, अतः वे स्वर्ग ही जाती हैं।
यह जीव जहाँ जाता है, वहीं के परिजनों से रागात्मक संबंध हो जाते हैं। माता-पिता, भाई-बहिनों, स्त्री-पुत्र आदि जितने भी रिश्तेदार होते हैं,
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शलाका पुरुष भाग-१ से
सभी से स्नेह हो जाता है; फिर उनके वियोग में यह इष्ट वियोगजनित आर्तध्यान करता है। ध्यान रहे, यद्यपि तीर्थंकर के विरह का ध्यान शुभ आर्त है, अतः पुण्यबंध का कारण है, पर है तो बन्धन ही न? यह शुभ आर्तध्यान भी है तो संसार का ही कारण ।
मोक्षगामी नामी पुरुष भी अपनी पूर्व पर्यायों में पुण्य-पाप के फलों में नाना योनियों में जाकर जन्में। जब उनकी काललब्धि आई, भली होनहार आने का समय आया तो तदनुसार बुद्धि, व्यवसाय और सहायक भी वैसे ही मिलते गये और एक दिन वह आया कि अपने-अपने समय में सबको निर्वाण की प्राप्ति हो गई ।
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हे भव्य ! 'दृष्टि' शब्द के मूलतः दो अर्थ हैं। एक श्रद्धा और दूसरा अपेक्षा । प्रथम श्रद्धा के अर्थ में 'दृष्टि के विषय' की बात करें तो हमारी दृष्टि का विषय, हमारी सत् श्रद्धा का श्रद्धेय हमारे परम शुद्ध निश्चयनय के विषयभूत ज्ञान का ज्ञेय और हमारे परम ध्यान का ध्येय शुद्धात्मा है, कारण परमात्मा है।
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प्रत्येक वस्तु (छहों द्रव्य) अपने-अपने स्वचतुष्टयमय होती हैं। स्वचतुष्टय का अर्थ है वस्तु का स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव । इन चारों सहित होने से ही द्रव्य को स्वचतुष्टयमय कहते हैं। वस्तु इन स्वचतुष्टयमय होने से ही सत् है ।
अपना आत्मा भी एक वस्तु है, द्रव्य है । इसके भी अपने स्वचतुष्टय हैं। सामान्य-विशेषात्मकता इसका द्रव्य है, असंख्यात प्रदेशी- अखण्ड इसका क्षेत्र है, नित्यानित्यात्मकता इसका काल है और एकानेकात्मकता इसका भाव है। ध्यान रहे, सम्पूर्ण चतुष्टयमय वस्तु का नाम भी द्रव्य है और