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यदि चूक गये तो
मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र ही चार गति में भटकने का कारण है। अतः उन्हें जानकर उनको छोड़ना आवश्यक है।
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आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त किया जा सकता है। पर यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावों को करता है, अतः दुःखी है।
जब यह आत्मा अपने को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेषभावरूप विकारी परिणमन करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त कहा जाता है। कर्म आत्मा को जबरदस्ती विकार नहीं कराते हैं। अतः मात्र कर्मों को दुःख का कारण मानना भूल है।
जब पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमे, तब कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके उसे निमित्त कारण कहते हैं। अतः जब आत्मा स्वयं अपनी भूल से विकारादि रूप (दुःखादिरूप) परिणमे, तब उसमें कर्मोदय को निमित्त कहा जाता है।
अपने द्वारा किए पाप-पुण्य कर्मों के उदय में यह जीव मोह-रागद्वेषरूपी विकारी भाव करता है, उन्हें भावकर्म कहते हैं और उन मोह-रागद्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (पौद्गलिक कर्मरज) कर्मरूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। इन अपने किए कर्मों का फल जीव को भोगना ही पड़ता है।
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ज्ञानस्वभावी जीवतत्त्व को आत्मा कहते हैं। वह अवस्था की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है - १. बहिरात्मा, २. अंतरात्मा, ३. परमात्मा ।
शरीर को आत्मा तथा अन्य पदार्थों और रागादि में अपनापन माननेवाला या शरीर और आत्मा को एक माननेवाला जीव ही बहिरात्मा है, अज्ञानी ( मिथ्यादृष्टि) है।
आत्मा को छोड़कर अन्य बाह्य पदार्थों में (अपनापन ) आत्मपन
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हरिवंश कथा से
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मानने के कारण ही यह बहिरात्मा कहलाता है। अनादिकाल से यह आत्मा शरीर की उत्पत्ति में ही अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश में ही अपना नाश तथा शरीर से संबंध रखने वालों को अपना मानता आ रहा है। जब तक यह भूल न निकले तब तक जीव बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यादृष्टि रहता है। मिथ्यादृष्टि के कारण जीव अपने राग-द्वेष व मोह से मुक्त नहीं हो
पाता ।
जो व्यक्ति भेदविज्ञान के बल से निज आत्मा को देहादिक से भिन्न, ज्ञान और आनन्द स्वभावी जानता है, मानता है और अनुभव करता है; वह ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) आत्मा ही अंतरात्मा है। आत्मा में ही अपनापन मानने के कारण तथा आत्मा के अतिरिक्त अन्य सभी परपदार्थों में अपनापन की मान्यता छोड़ देने के कारण वह अंतरात्मा कहलाता है।
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अंतरात्मा गृहस्थावस्था त्यागकर शुद्धोपयोगरूप मुनि-अवस्था ध कर निजस्वभाव साधन द्वारा परमात्मपद प्राप्त करता है अर्थात् परमात्मा बन जाता है और इसके अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य प्रकट हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यही अंतरात्मा अपने पुरुषार्थ द्वारा आगे बढ़कर परमात्मा बनता है ।
प्रत्येक आत्मा सुखी होना चाहता है। परमात्मा पूर्ण निराकुल होने से अनंत सुखी है। इस अपेक्षा भी परमात्मा दो प्रकार के होते हैं - १. सकल परमात्मा, २. निकल परमात्मा ।
चार घातिया कर्मों का अभाव करने वाले श्री अरहंत भगवान शरीर सहित होने से सकल परमात्मा कहलाते हैं और कर्मों से रहित सिद्ध भगवान शरीर रहित होने से निकल परमात्मा कहलाते हैं।