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शलाका पुरुष भाग-१से
यदिचूक गये तो उनके ज्ञानदर्पण में झलकते रहते हैं। न तो पदार्थों के परिणमन से उनका केवलज्ञान प्रभावित होता है और न उनके केवलज्ञान पदार्थ से प्रभावित होते हैं - दोनों अपने में पूर्ण स्वाधीन रहकर जानते हैं और जानने में आते हैं। दोनों में मात्र ज्ञायक-ज्ञेय संबंध हैं, अन्य कुछ भी संबंध नहीं है।
मुक्त होने का अर्थ है दुःखों से, विकारों से, कर्म बन्धनों से मुक्त होना । इसे ही मोक्ष कहते हैं। मोक्ष आत्मा की अनन्त आनन्दमय दशा, अतीन्द्रिय सुख एवं अतीन्द्रिय ज्ञानमय दशा है। भव्यजीवों का यह मोक्ष ही अन्तिम साध्य है। सम्पूर्ण धर्म आराधना इस मुक्ति की प्राप्ति हेतु ही होती है।
प्रत्येक पदार्थ का किस समय कैसा/क्या परिणमन होगा - यह सब सुनिश्चित ही है और केवली उसे उसी रूप में स्पष्ट जानते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो ऋषभदेव ने यह कैसे बता दिया कि यह मरीचि ही एक कोड़ाकोड़ी वर्ष बाद इसी भरतक्षेत्र का २४वाँ तीर्थंकर महावीर होगा?
साधुओं के दो भेद हैं १. जिनकल्पी, २. स्थविरकल्पी। जो मुख्यतया आत्मचिन्तन में लीन रहते रहें, उपदेश आदि प्रवृत्ति न करें; उन्हें जिनकल्पी साधु कहते हैं और जो साधु संघ के साथ रहें, उपदेश दें, दीक्षा दें, उन्हें स्थविरकल्पी कहते हैं। तीर्थंकर मुनिराज जिनकल्पी होते हैं, अतः मुनि होते ही आजीवन मौन ले लेते हैं। मुनि अवस्था में उपदेश नहीं करते। केवली होने से उनकी दिव्यध्वनि मुख से नहीं, बल्कि सर्वांग से निरक्षरी अर्थात् ॐ के रूप में एकाक्षरी निकलती है।
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सर्वज्ञता का स्वरूप जानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है; क्योंकि सर्वज्ञता धर्म का मूल है। सच्चे देव के स्वरूप में सर्वज्ञता शामिल है। जो वीतरागी, सर्वज्ञ व हितोपदेशी हो, वही सच्चा देव है। सर्वज्ञता को समझे बिना सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को समझना भी संभव नहीं है। और सच्चे देवशास्त्र-गुरु को भी जो नहीं जानता, उसके तो व्यवहार सम्यग्दर्शन का भी ठिकाना नहीं, उसे धर्म कहाँ से कैसे होगा?
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केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि दिन में तीन बार खिरती थी और प्रत्येक बार का समय ६ घड़ी होता था। एक घड़ी २४ मिनिट की होती है। इसप्रकार कुल मिलाकर ७ घंटे १२ मिनिट प्रतिदिन उनकी दिव्यध्वनि सर्वांग से खिरती थी।
ध्यान का स्वरूप - तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में चित्त का निरोध ध्यान है। वह ध्यान वज्रवृषभनाराचसंहनन वालों के अधिक से
अधिक अन्तर्मुहूर्त ही रहता है। वस्तु स्वरूप के चिंतन में चित्त की चंचल तरंगों को अनुप्रेक्षा या भावना कहते हैं।
आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ के स्वरूप का चिन्तन करते हुए साम्यभाव को प्राप्त करता है, उस परिणाम को धर्मध्यान कहते हैं अथवा आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तवन कर राग-द्वेष कम करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं।
जहाँ से भी दिव्यध्वनि का सार सुनने को मिले, वहाँ से प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसप्रकार साक्षात् जिनेन्द्र के दर्शन न मिलने पर हम उनकी मूर्ति के दर्शन से ही उनकी पूर्ति कर लेते हैं, वैसे ही साक्षात् दिव्यध्वनि श्रवण के अभाव में उसी परम्परा में आचार्यों द्वारा लिखित जिनवाणी से लाभ लेना ही एकमात्र उपाय है।
___पाँचों इन्द्रियों और मन के माध्यम से विषयभोगों में विकेन्द्रित ज्ञान की किरणों को वहाँ से समेट कर ज्ञायक स्वभावी आत्मा पर केन्द्रित करना ही धर्मध्यान है।
तात्पर्य यह है कि धर्मध्यान में उदासीन रूप से समस्त पदार्थों के
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