Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ यदिचूक गये तो कहलाता है। ५. परिग्रह परिणामव्रत - अपने से भिन्न पर-पदार्थों में ममत्वबुद्धि ही परिग्रह है। यह अन्तरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार का होता है। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादि नवनोकषाय - ये चौदह अंतरंग - परिग्रह के भेद हैं। तथा जमीन-मकान, सोना-चाँदी, धनधान्य, नौकर-नौकरानी, बर्तन आदि अन्य चेतन-अचेतन वस्तुयें बाह्य परिग्रह हैं। उक्त परिग्रहों में गृहस्थ के मिथ्यात्व नामक परिग्रह का तो पूर्ण रूप से त्याग हो जाता है तथा बाकी अंतरंग परिग्रहों का कषायांश के सद्भाव के कारण एकदेश त्याग होता है तथा वह बाह्य परिग्रह की सीमा निर्धारित कर लेता है। इस व्रत को परिग्रह परिमाणव्रत कहते हैं। हरिवंश कथा से परिमाणव्रत है। पंचेन्द्रिय के विषयों में जो एक बार भोगने में आ सकें उन्हें भोग और बार-बार भोगने में आवें उन्हें उपभोग कहते हैं। ४. अतिथि संविभाग व्रत – मुनि, व्रती श्रावक और अव्रती श्रावक इन तीन प्रकार के पात्रों को अपने भोजन में से विभाग करके विधिपूर्वक आहार दान देना अतिथि संविभाग व्रत है। -- दुर्जनों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि वे दूसरों को सुखी नहीं देख सकते, यदि वे कुटुम्ब के हों तब तो उनकी ईर्ष्या का कहना ही क्या है? -- व्यक्ति अपनी खोटी भावना करके स्वयं पाप बाँध लेता है, दूसरों का बुरा करना तो किसी के हाथ में है नहीं । उसका भला-बुरा तो उसके स्वयं के पुण्य-पाप के परिणामों से होता है। यदि यह बात समझ में आ जाये तो कोई किसी का बुरा चाहेगा ही क्यों? गुणव्रत - दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ये तीन गुणव्रत हैं। -- शिक्षाव्रत - जिनसे मुनिव्रत पालन की शिक्षा मिले, वे शिक्षाव्रत हैं। ये चार हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग व्रत। १.सामायिकव्रत - सम्पूर्णद्रव्यों में राग-द्वेष के त्यागपूर्वक समताभाव का अवलम्बन करके आत्मस्वभाव की प्राप्ति करना ही सामायिक है। व्रती-श्रावक प्रातः, दोपहर, सायं कम से कम अन्तर्मुहूर्त एकान्त स्थान में सामायिक करते हैं। २. प्रोषधोपवास व्रत - कषाय, विषय और आहार का त्याग कर आत्मस्वभाव के समीप ठहरना उपवास है। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को सरिंभ छोड़कर उपवास करना ही प्रोषधोपवास है। ३. भोगोपभोगपरिमाण व्रत - प्रयोजनभूत सीमित परिग्रह के भीतर भी कषाय कम करके भोग और उपभोग का परिमाण घटाना भोगोपभोग यदि अपने पुण्य-प्रताप के बिना मात्र देवी-देवताओं द्वारा संसार में इष्टफल दिया जा सकता होता तो किसी भी मनुष्य को इष्ट सामग्री से रहित नहीं होना चाहिए; क्योंकि प्राय: सभी लोग अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए अपने इष्ट देवों की उपासना निरन्तर करते देखे जाते हैं। वस्तुतः मनुष्यों की कार्यसिद्धि तो अपने पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है, परन्तु देवताओं की प्रतिनिधि रूप मूर्ति की उपासना करनेवाला उस सिद्धि को मूर्ति द्वारा दिया हुआ मानता है। इसकारण मूर्ति के समक्ष दूसरों के प्राणों की बलि देने लगता है, जो निर्दय परिणामों के बिना संभव ही नहीं है, यह कुकृत्य महापाप है। जो रागी-द्वेषी देवी-देवता अपनी मूर्ति और मन्दिर स्वयं नहीं बना सकते तथा उनकी सुरक्षा भी नहीं कर सकते और जिन्हें प्रतिदिन उपयोग में आनेवाली दीप, धूप, फल, फूल, नैवेद्य आदि के लिए भक्तों द्वारा पूजा की

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