Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ हरिवंश कथा से अथवा जिसके आधार से कर्म (कार्य) किया जाय, उसे अधिकरण कहते हैं। सर्वद्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छहों कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्धदशा में या अशुद्धदशा में स्वयं छहों कारकरूप निरपेक्ष परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की अर्थात् निमित्त कारणों की अपेक्षा नहीं रखते। निश्चय से पर के साथ आत्मा को कारकता का सम्बन्ध नहीं है, जिससे शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए पर सामग्री को खोजने की आकुलता से परतंत्र हुआ जाय। अपने कार्य के लिए पर की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। यदिचूक गये तो जो किसी न किसी रूप में क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक हो, कार्यकारी हो, वही कारक हो सकता है अन्य नहीं; कारक छह होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान-अपादान और अधिकरण। ये छहों क्रिया के प्रति किसी न किसी प्रकार प्रयोजक हैं, कार्यकारी हैं, इसकारण इन्हें कारक कहा गया है। निज कार्य के षट्कारक निज शक्ति से निज में ही विद्यमान हैं; किन्तु मिथ्या मान्यता के कारण अज्ञानी अपने कार्य के षट्कारक पर में खोजता है। यही मिथ्या मान्यता राग-द्वेष की जनक है। अतः कारकों का परमार्थ स्वरूप एवं उनका कार्य-कारण-सम्बन्ध समझना अति आवश्यक है। अविन्प्रभाव वश जो बाह्य वस्तुओं में कारकपने का व्यवहार होता है, वह वस्तुतः अभूतार्थ है। जैसे कि - जिस परद्रव्य की उपस्थिति के बिना कार्य न हो। जैसे - घट कार्य में कुंभकार, चकर, चीवर आदि । कर्ताकारक - जो स्वतंत्रता से, सावधानीपूर्वक अपने परिणाम (पर्याय) या कार्य को करे, जो क्रिया व्यापार में स्वतंत्ररूप से कार्य का प्रयोजक हो, वह कर्ताकारक है। प्रत्येक द्रव्य अपने में स्वतंत्र व्यापक होने से अपने ही परिणाम का स्वतंत्र रूप से कर्ता है। __कर्मकारक - कर्ता की क्रिया द्वारा ग्रहण करने के लिए जो अत्यन्त इष्ट होता है, वह कर्म कारक है। अथवा कर्ता जिस परिणाम (पर्याय) को प्राप्त करता है, वह परिणाम उसका कर्म है। करणकारक - क्रिया की सिद्धि में जो साधकतम होता है, वह करण कारक है अथवा कार्य के उत्कृष्ट साधन को करण कारक कहते हैं। सम्प्रदान - कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत होता है, वह सम्प्रदान है या कर्म परिणाम जिसे दिया जाय अथवा जिसके लिए किया जाय वह सम्प्रदान है। अपादान - जिसमें कर्म किया जाय वह ध्रुववस्तु अपादान कारक है। अधिकरण - जो क्रिया का आधारभूत है, वह अधिकरणकारक है। निश्चय से विकारी पर्यायें भी अहेतुक ही हैं; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपना परिणमन स्वतंत्र रूप से करता है। परन्तु विकारी पर्याय के समय निमित्त रूप हेतु का आश्रय अवश्य होता है, इसकारण व्यवहार से उसे सहेतुक कहा जाता है। परमार्थ से अन्यद्रव्य अन्य द्रव्य के भाव का कर्ताधर्ता नहीं होता, इसलिए जो चेतन के भाव हैं, उनका कर्ता चेतन ही होता है, जड़ नहीं। इस जीव को जो अज्ञानभाव से मिथ्यात्वादि भाव रूप पणिाम हैं, वे भी चेतन हैं, जड़ नहीं। अशुद्ध निश्चयनय से उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है। इसप्रकार वे परिणाम चेतन होने से उनका कर्ता भी चेतन ही है; क्योंकि चेतनकर्म का कर्ता चेतन ही होता है - यह परमार्थ है। इतना विशेष है कि सभी कार्य निमित्त सापेक्ष होने मात्र से उन्हें व्यवहार से अहेतुक कहा जाता है। -- कर्मों की विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग रूप विचित्रता (३३)

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85