Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ यदिचूक गये तो जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है। जीव के परिणाम तो निमित्तरूप में मात्र उपस्थित होते हैं, वे कर्मों के कर्ता नहीं। पुद्गल कर्म जीव को विकारी नहीं करता, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति का कर्ता नहीं है। हाँ, जब जीव में स्वयं की तत्समय की योग्यता से विकार होता है, तब कर्म का उदय निमित्त मात्र होता है। हरिवंश कथा से नहीं होता एवं उत्पाद और व्यय ध्रौव्य के बिना नहीं होता एवं उत्पाद और व्यय ध्रौव्य स्वरूप अर्थ के बिना नहीं होता । यह वस्तुस्थिति है। -- अध्यात्म में सम्बन्ध एवं संबोधन कारक नहीं होते; क्योंकि सम्बन्ध एवं सम्बोधनकारक पर से जोड़ते हैं और अध्यात्म में पर से कुछ भी संबंध नहीं होता। प्रत्येक वस्तु का जितना भी स्व है, वह स्व के अस्तित्वमय है। उसमें पर के अस्तित्व का अभाव है। सजातीय या विजातीय कोई भी वस्तु अपने से भिन्न स्वरूप सत्ता रखनेवाली किसी भी अन्य वस्तु की सीमा को लांघ कर उसमें प्रवेश नहीं कर सकती; क्योंकि दोनों के बीच में अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है, जिसे भेदना संभव नहीं है। वैसे तो सभी शक्तियाँ वस्तु की स्वतंत्रता की ही साधक हैं, परन्तु कतिपय प्रमुख शक्तियाँ इसप्रकार हैं - भावशक्ति - इस शक्ति के कारण प्रत्येक द्रव्य अन्वय (अभेद) रूप से सदा अवस्थित रहता है। यह शक्ति पर कारकों के अनुसार होने वाली क्रिया से रहित भवनमात्र है, अतः इस शक्ति द्वारा द्रव्य को पर कारकों से निरपेक्ष कहा है, इससे द्रव्य की स्वतंत्रता स्वतः सिद्ध हो जाती है। क्रियाशक्ति - इस शक्ति से प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप सिद्ध कारकों के अनुसार उत्पाद-व्यय रूप अर्थ क्रिया करता है। कर्मशक्ति - इस शक्ति से प्राप्त होनेवाले अपने सिद्ध स्वरूप को द्रव्य स्वयं प्राप्त होता है। कर्त्ताशक्ति - इस शक्ति से होनेरूप स्वतः सिद्ध भाव का यह द्रव्य भावक होता है। करणशक्ति - इससे यह द्रव्य अपने प्राप्यमाण कर्म की सिद्धि में स्वतः साधकतम होता है। सम्प्रदान शक्ति - इससे प्राप्यमाण कर्म स्वयं के लिए समर्पित होता है। अपादानशक्ति - इससे उत्पाद-व्ययरूप होने पर भी द्रव्य सदा अन्वयरूप से ध्रुव बना रहता है। अधिकरणशक्ति - इससे भव्यमात्र (होने योग्य) समस्त भावों का आधार स्वयं द्रव्य होता है। सम्बन्धशक्ति - प्रत्येक द्रव्य में सम्बन्ध नाम की भी एक ऐसी शक्ति है, जिससे किसी भी द्रव्य का अपने से भिन्न अन्य किसी द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह सूचित होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपना ही स्वामी है। प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर अपना कार्य (कर्म) करता है और करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण आदि छहों कारक रूप से भी द्रव्य स्वयं निज शक्ति से परिणमित होता है। न तो द्रव्य सर्वथा कूटस्थ नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक है; अपितु वह अर्थ क्रिया करण शक्तिरूप है। वह अपने अन्वयरूप (गुणमय) स्वभाव के कारण एकरूप अवस्थित रहते हुए भी स्वयं उत्पाद-व्ययरूप है। और व्यतिरेक (भेदरूप या पर्यायरूप) स्वभाव के कारण सदा परिणमनशील भी है। यही वस्तु का वस्तुत्व है। तात्पर्य यह है कि वह द्रव्यदृष्टि से ध्रुव है और पर्यायदृष्टि से उत्पादव्यय रूप है। वस्तुतः उत्पाद-व्यय के बिना नहीं होता और व्यय-उत्पाद के बिना

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