Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ हरिवंश कथा से विद्वान भी अपने पूर्वाग्रहों के व्यामोह से इस तथ्य को स्वीकार करने में न च नु च' करने से नहीं चूकते और यह सत्य तथ्य समझे बिना धर्म का फल पाना तो दूर, धर्म का अंकुर भी नहीं उगता। यदिचूक गये तो फल दिए बिना नहीं छूटता। अतः हमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखने की जरूरत है कि भूलचूक से भी, जाने-अनजाने भी हम किसी के प्राण पीड़ित न करें। अपने जरा से स्वाद के लिए हिंसा से उत्पन्न आहार ग्रहण न करें, अपनी पूरी दिनचर्या में अहिंसक आचरण नहीं करें। अन्यथा जब पौराणिक पुरुषों की यह दशा हुई तो हमारा तो कहना ही क्या है? विश्वदर्शन की दृष्टि में सुखी होने का मूलमंत्र क्या है? धर्म का स्वरूप तो सुखद है, फिर उसे पाने में कष्ट क्यों? -- वस्तु स्वातंत्र्य एक ऐसा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि जिसके बिना धर्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अतः यदि वीतराग और स्वभावी आत्मा को पाना है तो आज नहीं तो कल कभी न कभी इस सिद्धान्त को स्वीकार करना होगा। -- -- धर्म कष्टमय नहीं। वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त किसी धर्म विशेष या दर्शन विशेष की मात्र मानसिक उपज या किसी व्यक्ति विशेष का वैचारिक विकल्प मात्र नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि का स्वरूप है, ऑटोमेटिक विश्वव्यवस्था है। विश्वव्यवस्था ही विश्वदर्शन है, यही जैनदर्शन है। प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के गुण होते हैं - एक सामान्य और दूसरा विशेष । जो गुण सभी द्रव्यों में रहते हैं, उन्हें सामान्यगुण कहते हैं। जैसे - अस्तित्वगुण सब द्रव्यों में पाया जाता है। अतः यह सामान्य गुण हुआ। यह वस्तुत्व गुण भी उन्हीं सामान्य गुणों में से एक गुण है तथा जो गुण सब द्रव्यों में न रहकर अपने-अपने द्रव्यों में रहते हैं, उन्हें विशेष गुण कहते हैं। जैसे - ज्ञान, दर्शनगुण केवल आत्मा में ही होते हैं, अन्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व कालद्रव्य में नहीं। अतः ये जीव द्रव्य के विशेष गुण हैं। इसीतरह पुद्गल द्रव्य में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, धर्मद्रव्य में गति हेतुत्व, अधर्मद्रव्य में स्थिति हेतुत्व, आकाश द्रव्य में अवगाहन हेतुत्व और कालद्रव्य में परिणमन हेतुत्व इनके विशेष गुण हैं। इस जगत में जितने चेतन व अचेतन पदार्थ हैं, जीव-अजीव द्रव्य हैं; वे सब पूर्ण स्वतंत्र हैं, स्वावलम्बी हैं। उनका एक-एक समय का परिणमन भी पूर्ण स्वाधीन है। जो किसी न किसी रूप में ईश्वरीय कर्तृत्व में आस्था रखते हैं, यह बात उनके गले उतारना आसान नहीं है; क्योंकि जनसाधारण की जन्मजात श्रद्धा बदलना सरल नहीं होता। ईश्वरवादियों की तो बात ही दूर; जो ईश्वरवादी नहीं हैं, वे भी अनादिकालीन अज्ञान के कारण पर में एकत्वममत्व एवं कर्तृत्व के संस्कारों के कारण पर के कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। उन्हें भी यह वस्तु स्वातंत्र्य सिद्धान्त समझना टेढ़ी खीर है। वैसे तो प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण हैं, सामान्य गुण भी अनेक हैं, परन्तु उनमें छह मुख्य हैं - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी भी अभाव नहीं होता, उसे अस्तित्व गुण कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य में यह अस्तित्व गुण है, अतः प्रत्येक जनसाधारण की तो बात ही क्या है? दर्शनशास्त्र के धुरन्धर तार्किक (३१)

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