Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ ३६ हरिवंश कथा से यदिचूक गये तो उत्पन्न हुए वैर-विरोध का त्यागकर संक्लेश भावों से तो बच ही सकते हैं। यदि ऐसा नहीं किया और भोगों में ही उलझ गये तो अति संक्लेश भावों से मरकर एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय के भंयकर दुःख-सागर में डूब जाने से हम बच नहीं पायेंगे। अतः यह अवसर चूकने योग्य नहीं है। तपस्वी तो वे कहलाते हैं जो केवल तप और संयम की साधना करें, आत्मा-परमात्मा की आराधना करें तथा तत्त्व चर्चा करें, वीतराग कथा करें। तपस्वियों को पापबन्ध करने वाली सांसारिक बातों से क्या प्रयोजन? सब राग-द्वेष के मूलकारण मिथ्यात्व का अर्थात् सातों तत्त्वों की भूलों एवं देव-शास्त्र-गुरु सम्बन्धी भूलों का भी त्याग कर दें। वस्तुतः जगत में कोई भी वस्तु भली-बुरी नहीं है, इष्टानिष्ट की कल्पना ही मिथ्या है और यह मिथ्या मान्यता ही इस जीव की शत्रु है। अन्य कोई शत्रु है ही नहीं। मिथ्यात्व भी कोई ऐसा शत्रु नहीं है, जो कहीं शहर या गाँव में रहता हो। ऐसा शत्रु भी नहीं है, जिसका अस्त्रों-शस्त्रों से नाश किया जा सके। अपनी तत्त्व सम्बन्धी मिथ्या मान्यता का नाम ही मिथ्यात्व है। -- -- -- मिथ्यात्व तो अपना ही मिथ्याभाव है। सच्चे वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु एवं जीव-अजीव आस्रव बंध आदि सात तत्त्वों के विषय में उल्टी मान्यता, विपरीत अभिप्राय होना, परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व की मान्यता का होना मिथ्यात्व है तथा परपदार्थों में इष्टानिष्ट बुद्धि मिथ्यात्व का फल है। ऐसे मिथ्या अभिप्राय से निरन्तर आर्त-रौद्रभाव होते हैं जो अनन्त संसार के कारण हैं। इनका नाश तो एकमात्र इनके सम्बन्ध में सही समझ से ही होता है। और इसके लिए सर्व प्रकार से अनुकूल अवसर मिल गया है अतः यह मौका चूकने योग्य नहीं है। सबसे पहले शास्त्र स्वाध्याय द्वारा ज्ञानस्वभावी निज आत्मतत्त्व का निर्णय करना चाहिए तथा भेदज्ञान करने के लिए जीव और अजीव को भिन्न जानना फिर आत्मा और देह की भिन्न प्रतीतिपूर्वक देहादि जितने भी परद्रव्य हैं, उनसे भेदज्ञान कर स्वरूप में स्थिरता का प्रयत्न करना चाहिए। एतदर्थ सर्वप्रथम सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण में रहकर वीतरागी देव और निर्ग्रन्थ गुरु के बताये मोक्षमार्ग को यथार्थ जानें, पहचानें, फिर पर की प्रसिद्धि की हेतुभूत पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों को जीते, उन्हें मर्यादा में ले । बारह अणुव्रत धारण करें। और क्रम-क्रम से ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हुए आत्म साधना के मार्ग पर अग्रसर होवें। जैसे-जैसे अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ बढ़ता जाये। कषायें कृष होती जायें, निर्दोष २८ मूलगुण पालन की शक्ति हो जाये, तब मुनिव्रत धारण की योग्यता आती है; क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के बिना सदोष तपस्वी होना कल्याण का मार्ग नहीं है, बल्कि हानिकारक हैं। यद्यपि तपस्वी होना अति उत्तम है; क्योंकि मुनि हुये बिना न तो आज तक किसी को मुक्ति मिली है और न मिलेगी, किन्तु जल्दबाजी में अज्ञानतप करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मोक्षमार्ग में समझपूर्वक ही अग्रसर होना चाहिए। अन्यथा अपना तो कोई लाभ होता नहीं, मुनि पद भी बदनाम होता है। -- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग तो वस्तुतः एक ही है, किन्तु इसका कथन दो प्रकार से है - एक निश्चय मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार -- विकथाओं से संतों को क्या प्रयोजन? तपस्वियों को तो मात्र धर्मकथायें और धर्मध्यान ही करने योग्य हैं। (१९)

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