Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ हरिवंश कथा से यदिचूक गये तो मान्यता और इष्टानिष्ट कल्पनाओं को त्यागकर सागर के भयंकर दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। दूसरों को दुःख पहुँचाकर जगत में कोई सुखी नहीं रह सकता । अपराधी को अपने अपराध का दण्ड तो भुगतना ही चाहिए; अन्यथा लोक में अराजकता भी तो फैल जायेगी। चौबीस तीर्थंकरों ने कुछ भी नया नहीं कहा, जो अनादि-निधन छह द्रव्यों का स्वतंत्र परिणमन, सात तत्त्वों का स्वरूप, स्व-संचालित विश्वव्यवस्था आदि का उपदेश चला आ रहा है। वही सब तीर्थंकरों की वाणी में आता है। जो जीव उनकी दिव्यध्वनि के सार को समझकर तदनुसार श्रद्धान-ज्ञान और आचरण करते हैं, वे अल्पकाल में ही सांसारिक दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। सामान्य रूप से तो जीव-अजीव दो ही तत्त्व हैं। आस्रवादिक तो जीव-अजीव के ही विशेष हैं। किन्तु यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। अतः आस्रवादि पाँच पर्यायरूप विशेष तत्त्वों को भी जानना जरूरी है। उक्त सातों के यथार्थ श्रद्धान बिना मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है; क्योंकि जीव और अजीव को जाने बिना अपने पराये का भेद-विज्ञान कैसे हो? मोक्ष को पहिचाने बिना और हित रूप माने बिना उसका उपाय कैसे करें? मोक्ष का उपाय संवर-निर्जरा है, अतः उनका जानना भी आवश्यक है तथा आस्रव का अभाव संवर है और बंध का एकदेश अभाव निर्जरा है, अतः इनको जाने बिना संवर-निर्जरा रूप कैसे प्रर्वते? अतः इनका संक्षिप्त सार इसप्रकार है जिन मोह-राग-द्वेषभावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म आते हैं, उन मोह-राग-द्वेषभावों को भावास्रव कहते हैं और उसके निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं आना द्रव्यास्रव है।। आत्मा का अज्ञान, मोह-राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि विभाव भावों में रुक जाना सो भावबंध है और उसके निमित्त से कार्माण पुद्गलों का स्वयं कर्मरूप होकर बंधना सो द्रव्यबंध है। __ पुण्य-पाप के विकारी भावों को आत्मा के शुद्ध (वीतरागी) भावों से रोकना सो भावसंवर है, और तदनुसार नये कर्मों का आना स्वयं रुक जाना द्रव्यसंवर है। ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा के लक्ष्य के बल से स्वरूप में आंशिक स्थिर होना या आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्था का आंशिक नाश करना सो भावनिर्जरा है और उसका निमित्त पाकर जड़कर्मों (द्रव्यकर्मों) का अंशतः खिर जाना सो द्रव्य निर्जरा है। अशुद्धदशा का सर्वथा सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भाव मोक्ष है और द्रव्यकर्मों का सर्वथा नाश (अभाव) होना द्रव्यमोक्ष है। संसार में समस्त प्राणी दुःखी दिखाई देते हैं और वे दुःख से बचने का उपाय भी करते हैं। परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वों की सही जानकारी एवं श्रद्दा के बिना दुःख दूर होता नहीं। दुःख दूर करना और सुखी होना ही हम सब जीवों का सच्चा प्रयोजन है और ऐसे तत्त्व जिनकी सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान बिना हमारा दुःख दूर न हो सके और हम सुखी न हो सकें, उन्हें ही प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं। तत्त्व माने वस्तु का सच्चा स्वरूप । जो वस्तु जैसी है, उसका जो भाव, वही तत्त्व है। तत्त्व सात होते हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनका यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। ज्ञान दर्शनस्वभावी आत्मा को जीवतत्त्व कहते हैं। ज्ञानदर्शनस्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न, किन्तु आत्मा से संबंधित समस्त द्रव्य (पदार्थ) अजीव तत्त्व कहलाते हैं। अन्य पुद्गलादि समस्त पदार्थ अजीवद्रव्य हैं। (१२)

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