Book Title: Yadi Chuk Gaye To
Author(s): Mahavir Prasad Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ यदिचूक गये तो शौर्य और प्रभाव के द्वारा सागर पर्यन्त पृथ्वी को जीतने वाले और विशाल पृथ्वी पर शासन करने वाले बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं की सत्ता भी काल के प्रचण्ड प्रहारों से ध्वस्त हुई दिखाई देती हैं। प्रिय स्त्री तथा सुखदुःख के साथी मित्र और पुत्र भी दुर्भाग्य रूप प्रलय के प्रकोप से अशुभकर्मों के उदय आने पर सूखे पत्तों की भाँति नष्ट होते देखे जाते हैं। इस संसार में मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवों के भी प्रिय देवांगनाओं का वियोग को प्राप्त होते देखा जाता है। हरिवंश कथा से जब व्यक्ति कामान्ध हो जाता है तो उसका सारा विवेक समाप्त हो जाता है, उसे न्याय-अन्याय तो दिखाई देता ही नहीं, इस जन्म में लोकनिन्दा का भय भी नहीं रहता और परलोक में पाप के फल स्वरूप कुगति के दुःखों को भोगना पड़ेगा, इसकी परवाह भी वह नहीं करता। सज्जन लोग भले कामों का ही साथ देते हैं, बुरे कामों का साथ कभी नहीं दे सकते । जब मनुष्य पतित हो जाता है, पाप प्रवृत्ति में पड़ जाता है तो उसका पुण्य क्षीण होने लगता है और सब अनुकूल संयोग स्वतः साथ छोड़ देते हैं, भले ही वे सगे सम्बन्धी एवं पत्नी-पुत्र ही क्यों न हो। अज्ञानियों को तो यह भी भान नहीं कि क्षण-भंगुर मेघों की भाँति ही यह वज्र जैसा सुदृढ़ शरीर भी वृद्धावस्थारूपी आँधी-तूफानों के प्रहारों से नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। अपने शौर्य और प्रभाव द्वारा समस्त पृथ्वी तक को वश में करने वाले बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी कालचक्र के प्रचण्ड आघातों से चूर-चूर हो जाते हैं। प्राणों के समान प्रिय स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र भी दुर्भाग्यरूप प्रबल वायु के वेग से सूखे पत्तों की भाँति यत्र-तत्र बिखर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। सचमुच जिसकी होनहार खोटी हो, उसे सद्बुद्धि नहीं आ सकती। जिनकी होनहार अच्छी हो उन्हें ही सद्बुद्धि आती है और सदनिमित्त मिलते हैं। जिसप्रकार ईंधन से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती; हजारों नदियों के पानी से भी समुद्र कभी संतुष्ट नहीं होता; उसीप्रकार संसार के संचित काम-भोग की सामग्री से संसारी जीवों की भोगाभिलाषा कभी तृप्त नहीं होती। -- इसके विपरीत जो ज्ञानी सम्यग्दृष्टि एवं इन्द्रिय-विजयी मानव हैं, वे उन विषयों से विरक्त हो जाते हैं और तत्त्वज्ञान की जलधारा से उस विषयाग्नि को बुझा देते हैं और यह सोचते हैं कि - "मैं इन सारहीन विषय सुखों को छोड़कर क्यों न शीघ्र ही हितरूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाऊँ। अब मुझे इन्हें त्यागने में एकक्षण भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।" जो जीवों की हिंसा की परवाह नहीं करता और अध्यात्म की आड़ लेकर ऐसी स्वछंदता की बातें करता है कि “आत्मा तो सूक्ष्म है, वह आग में जलता नहीं, पानी में गलता नहीं, अस्त्रों-शस्त्रों से कटता नहीं। उसे कोई कैसे मार या बचा सकता है?" यह उनका कहना ठीक नहीं है; क्योंकि यह कुतर्क है। ऐसी अध्यात्म की बात कहकर वह मानव हिंसा और क्रूरता के महापाप से नहीं बच सकता । उक्त कथन का हिंसा-अहिंसा के आचरण से कोई संबंध नहीं है। यह निर्विवाद सिद्ध है कि संसारी जीव शरीर प्रमाण है और मंत्र-तंत्र व अस्त्र-शस्त्र आदि किसी भी साधन से शरीर का घात होने पर जीव को नियम से दुःख होता ही है। अतः ऐसी क्रिया करने वाला व्यक्ति क्रूर होने से हिंसक है।

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