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एतावुपाधी परजीवयोस्तयोः सम्यङ्गिरासे न परो न जीवः ।
राज्यं नरेन्द्रस्य भटस्य खेटक
स्तयोरपोहे न भटो न राजा ॥ २४६ ॥ ये परमात्मा और जीवकी उपाधियाँ हैं; इनका भली प्रकार बाध हो जानेपर न परमात्मा ही रहता है और न जीवात्मा ही। जिस प्रकार राज्य राजाकी उपाधि है तथा ढाल सैनिककी; इन दोनों उपाधियोंके न रहनेपर न कोई राजा है और न योद्धा ।
अथात आदेश इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम् ।
श्रुतिप्रमाणानुगृहीतयुक्त्या तयोर्निरासः करणीय
एव ।। २४७ ।।
ब्रह्ममें कल्पित द्वैतको 'अथात आदेशो नेति नेति' (बृह० २। ३ । ६) इत्यादि श्रुति स्वयं निषेध करती है; इसलिये श्रुति - प्रमाणानुकूल युक्तिसे उपर्युक्त उपाधियोंका बाध करना ही चाहिये । नेदं नेदं कल्पितत्वान्न कल्पितत्वान्न सत्यं
रज्जौ
इत्थं दृश्यं साधुयुक्त्या व्यपोह्य
विवेक चूडामणि
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दृष्टव्यालवत्स्वप्नवच्च ।
ज्ञेयः पश्चादेकभावस्तयोर्यः ॥ २४८ ॥
यह दृश्य कल्पित होनेके कारण रज्जुमें प्रतीत होनेवाले सर्प और स्वप्न में भासनेवाले विविध पदार्थोंकी भाँति सत्य नहीं है; ऐसी ही प्रबल युक्तियोंसे दृश्यका निषेध करनेपर पीछे उन ( जीव और ईश्वर ) का जो
एक भाव बच रहता है वही जाननेयोग्य है।
ततस्तु तौ लक्षणया सुलक्ष्यौ तयोरखण्डैकरसत्वसिद्धये
नालं
133 विवेक-चूडामणि - 3. D
जहत्या न तथाजहत्या
किन्तूभयार्थात्मिकयैव भाव्यम् ॥ २४९ ॥