Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 141
________________ १४४ विवेक-चूडामणि ब्रह्मवेत्ता पुरुष अत्यन्त सघन आत्मानन्दरसके पानसे मतवाला होकर साक्षीरूपसे स्थित हुआ इन्द्रियोंको न तो विषयोंमें लगाता है और न उन्हें विषयोंसे हटाता है। वह अपने कर्मोके फलकी ओर तो देखता भी नहीं है। लक्ष्यालक्ष्यगतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना। शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः॥५५४॥ जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों दृष्टियोंको त्यागकर केवल एक आत्मस्वरूपसे स्थित रहता है वह ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महापुरुष साक्षात् शिव ही है। [ अर्थात् अन्य वस्तुके अभावके कारण जिसका कोई लक्ष्य (प्राप्तव्य) नहीं होता और जड अथवा सोये हुए पुरुषके समान जो ज्ञानशून्य भी नहीं होता वह पुरुष ही श्रेष्ठतम आत्मनिष्ठ है। ] जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थो ब्रह्मवित्तमः। उपाधिनाशाद्ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति निर्द्वयम्॥५५५ ॥ ऐसा ब्रह्मज्ञानी जीता हुआ भी सदा मुक्त और कृतार्थ ही है, शरीररूप उपाधिके नष्ट होनेपर वह ब्रह्मभावमें स्थित हुआ ही अद्वितीय ब्रह्ममें लीन हो जाता है। शैलूषो वेषसद्भावाभावयोश्च यथा पुमान्। तथैव ब्रह्मविच्छ्रेष्ठः सदा ब्रह्मैव नापरः॥५५६॥ नट जैसे विचित्र वेष-विन्यास धारण किये रहनेपर अथवा उसके अभावमें भी पुरुष ही है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता उपाधियुक्त हो अथवा उपाधिमुक्त, सदा ब्रह्म ही है और कुछ नहीं। यत्र क्वापि विशीर्णं सत्पर्णमिव तरोर्वपुःपतनात्। ब्रह्मीभूतस्य यतेः प्रागेव हि तच्चिदग्निना दग्धम्।।५५७॥ जहाँ-तहाँ गिरे हुए वृक्षके सूखे पत्तोंके समान ब्रह्मीभूत यतिका शरीर कहीं भी गिरे वह तो पहले ही चैतन्याग्निसे दग्ध हुआ रहता है।

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