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उपदेशका उपसंहार
एवं विदेहकैवल्यं सन्मात्रत्वमखण्डितम् । ब्रह्मभावं प्रपद्यैष यतिर्नावर्तते पुनः ॥ ५६८ ॥
अखण्ड सत्तामात्रसे स्थित होना ही विदेह - कैवल्य है। इस प्रकार ब्रह्म-भावको प्राप्त होकर यह यति फिर संसार-चक्रमें नहीं पड़ता । सदात्मैकत्वविज्ञानदग्धाविद्यादिवर्ष्मणः
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अमुष्य ब्रह्मभूतत्वाब्रह्मणः कुत उद्भवः ॥ ५६९ ॥ ब्रह्म और आत्माके एकत्व - ज्ञानरूप अग्निसे अविद्याजन्य शरीरादि उपाधिके दग्ध हो जानेपर तो यह ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप ही हो जाता है और ब्रह्मका फिर जन्म कैसा ?
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मायाक्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न स्तः स्वात्मनि वस्तुतः । यथा रज्जौ निष्क्रियायां सर्पाभासविनिर्गमौ ॥ ५७० ॥
बन्धन और मोक्ष मायासे ही हुए हैं; वे वस्तुत: आत्मामें नहीं हैं; जैसे क्रियाहीन रज्जुमें सर्प- प्रतीतिका होना न होना भ्रममात्र है, वास्तवमें नहीं । आवृतेः सदसत्त्वाभ्यां वक्तव्ये बन्धमोक्षणे । नावृतिर्ब्रह्मणः यद्यस्त्यद्वैतहानिः स्याद्वैतं नो सहते श्रुतिः ।। ५७१ ॥
काचिदन्याभावादनावृतम् ।
अज्ञानकी आवरणशक्तिके रहने और न रहनेसे ही क्रमशः बन्ध और मोक्ष कहे जाते हैं और ब्रह्मका कोई आवरण हो नहीं सकता, क्योंकि उससे अतिरिक्त और कोई वस्तु है नहीं; अतः वह अनावृत है। यदि ब्रह्मका भी आवरण माना जाय तो अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता और द्वैत श्रुतिको मान्य नहीं है। बन्धं च मोक्षं च मृषैव मूढा
बुद्धेर्गुणं वस्तुनि कल्पयन्ति । दृगावृतिं मेघकृतां यथा यथा रवौ
यतोऽद्वयासङ्गचिदेकमक्षरम्
॥ ५७२ ॥ बन्ध और मोक्ष दोनों बुद्धिके गुण हैं। जैसे मेघके द्वारा दृष्टिके ढँक जानेपर सूर्यको ढँका हुआ कहा जाता है, उसी प्रकार मूढ़ पुरुष उनकी