Book Title: Vivek Chudamani
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 143
________________ १४६ विवेक-चूडामणि अविनाशी वा अरेऽयमात्मेति श्रुतिरात्मनः । प्रब्रवीत्यविनाशित्वं विनश्यत्सु विकारिषु॥५६३ । 'अरे यह आत्मा अविनाशी है' यह श्रुति* भी विकारी देह आदिका नाश होनेपर आत्माके अविनाशित्वका ही प्रतिपादन करती है। पाषाणवृक्षतृणधान्यकटाम्बराद्या दग्धा भवन्ति हि मृदेव यथा तथैव। देहेन्द्रियासुमनआदि समस्तदृश्यं ज्ञानाग्निदग्धमुपयाति परात्मभावम्॥५६४॥ जिस प्रकार पत्थर, वृक्ष, तृण, अन्न, भूसा और वस्त्र आदि जलनेपर मिट्टी ही हो जाते हैं उसी प्रकार देह, इन्द्रिय, प्राण और मन आदि सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ ज्ञानाग्निसे दग्ध हो जानेपर परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं। विलक्षणं यथा ध्वान्तं लीयते भानुतेजसि। तथैव सकलं दृश्यं ब्रह्मणि प्रविलीयते॥५६५॥ जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर उससे विपरीत स्वभाववाला अन्धकार उसीमें लीन हो जाता है वैसे ही सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच ज्ञानोदय होनेपर ब्रह्ममें ही लीन हो जाता है। घटे नष्टे यथा व्योम व्योमैव भवति स्फुटम्। तथैवोपाधिविलये ब्रह्मैव ब्रह्मवित्स्वयम्॥५६६॥ घड़ेके नष्ट होनेपर जैसे घटाकाश महाकाश ही हो जाता है वैसे ही उपाधिका लय होनेपर ब्रह्मवेत्ता स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। क्षीरं क्षीरे यथा क्षिप्तं तैलं तैले जलं जले। संयुक्तमेकतां याति तथात्मन्यात्मविन्मुनिः ॥५६७॥ जैसे दूधमें मिलकर दूध, तैलमें मिलकर तैल और जलमें मिलकर जल एक ही हो जाते हैं वैसे ही आत्मज्ञानी मुनि आत्मामें लीन होनेपर आत्मस्वरूप ही हो जाता है। * 'अविनाशी वा अरेऽयमात्मानुच्छित्तिधर्मा' (बृह० ४।५।१४)

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