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अध्यास-निरास
निद्राया लोकवार्तायाः शब्दादेरपि विस्मृतेः। क्वच्चिन्नावसरं दत्त्वा चिन्तयात्मानमात्मनि ॥ २८७॥
निद्रा, लौकिक बातचीत अथवा शब्दादि किसीसे भी आत्मविस्मृतिको अवसर न देकर अर्थात् किसी भी कारणसे स्वरूपानुसन्धानको न भूलकर अपने अन्त:करणमें निरन्तर आत्माका चिन्तन करो। मातापित्रोर्मलोद्भूतं. मलमांसमयं वपुः । त्यक्त्वा चाण्डालवदूरं ब्रह्मीभूय कृती भव॥२८८॥
माता-पिताके मलसे उत्पन्न तथा मल-मांससे भरे हुए इस शरीरको चाण्डालके समान दूरसे ही त्यागकर ब्रह्मभावमें स्थित होकर कृतकृत्य हो जाओ।
घटाकाशं महाकाश इवात्मानं परात्मनि। विलाप्याखण्डभावेन तूष्णीं भव सदा मुने।। २८९ ॥
हे मुने! [ घटका नाश होनेपर ] जैसे घटाकाश महाकाशमें मिल जाता है, वैसे ही जीवात्माको परमात्मामें लीन करके सर्वदा अखण्डभावसे मौन होकर स्थित रहो।
स्वप्रकाशमधिष्ठानं स्वयंभूय सदात्मना। ब्रह्माण्डमपि पिण्डाण्डं त्यज्यतां मलभाण्डवत्॥२९०॥
जगत्का अधिष्ठान जो स्वयंप्रकाश परब्रह्म है, उस सत्स्वरूपसे स्वयं एक होकर पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों उपाधियोंको मलसे भरे हुए भाण्डके समान त्याग दो। चिदात्मनि सदानन्दे देहारूढामहंधियम्। निवेश्य लिङ्गमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा ॥ २९१॥
देहमें व्याप्त हुई अहंबुद्धिको नित्यानन्दस्वरूप चिदात्मामें स्थित करके लिंग-शरीरके अभिमानको छोड़कर सदा अद्वितीयरूपसे स्थित रहो।
यत्रैष जगदाभासो दर्पणान्तः पुरं यथा। तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा कृतकृत्यो भविष्यसि ॥२९२ ।।