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विवेक-चूडामणि
बाह्य पदार्थों का निषेध कर देनेपर मनमें आनन्द होता है और मनमें आनन्दका उद्रेक होनेपर परमात्माका साक्षात्कार होता है और उसका सम्यक् साक्षात्कार होनेपर संसारबन्धनका नाश हो जाता है। इस प्रकार बाह्य वस्तुओंका निषेध ही मुक्तिका मार्ग है। पण्डितः सन्सदसद्विवेकी श्रुतिप्रमाणः परमार्थदर्शी । कुर्यादसतोऽवलम्बं
कः
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जानन्हि
स्वपातहेतोः शिशुवन्मुमुक्षुः ॥ ३३७ ॥
सत्-असत् वस्तुका विवेकी, श्रुतिप्रमाणका जाननेवाला, परमार्थ-तत्त्वका ज्ञाता ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो मुक्तिकी इच्छा रखकर भी जान-बूझकर बालकके समान अपने पतनके हेतु असत् पदार्थोंका ग्रहण करेगा। देहादिसंसक्तिमतो र्मुक्तस्य सुप्तस्य नो जागरणं न जाग्रतः
न
मुक्तिदेहाद्यभिमत्यभावः ।
स्वप्नस्तयोर्भिन्नगुणाश्रयत्वात् ॥ ३३८ ॥
जिसकी देह आदि अनात्मवस्तुओंमें आसक्ति है उसकी मुक्ति नहीं हो सकती और जो मुक्त हो गया है उसका देहादिमें अभिमान नहीं हो सकता। जैसे सोये हुए पुरुषको जागृतिका अनुभव नहीं हो सकता और जाग्रत् पुरुषको स्वप्नका अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि ये दोनों अवस्थाएँ भिन्न गुणोंके आश्रय रहती हैं।
आत्मनिष्ठाका विधान
अन्तर्बहिः स्वं स्थिरजङ्गमेषु ज्ञानात्मनाधारतया विलोक्य ।
त्यक्ताखिलोपाधिरखण्डरूपः
पूर्णात्मना यः स्थित एष मुक्तः ॥ ३३९ ॥